SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंतरपरूवणा ३६३ ५८७. भवसिद्धि० ओघं० । अब्भवसि० पंचणा०-णवदंसणा-मिच्छ०सोलसक०--भय-दु०--तेजा. क.--पसत्थापसत्थ०४-अगु०-उप०-णिमि०--पंचंत० उ० ज० ए०, उ० अणंतका० । अणु० ज० ए०, उ० बेसम० । सादासाद०-छण्णोक०पंचिंदि०-समचदु०-पर-उस्सा०-पसत्थ०-तस०४-थिराथिर-सुभासुभ--सुभग-सुस्सरआदें-जस०-अजस० उ० णाणाभंगो। अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । णस०ओरालि०-पंचसंठा--ओरालि०अंगो०--छस्संघ०-अप्पस०--दूभग-दुस्सर-अणादें-- णीचा० उ० णाणा भंगो। अणु० ज० ए०, उ० तिण्णि पलि० दे०। तिण्णिआयु०वेउव्वियछ, उक्क० अणु० ज० ए०, उ० अणंतका० । तिरिक्खायु० उ० अणु० ओघं। तिरिक्वगदि-तिरिक्वाणु०-उज्जो० उ णाणाभंगो । अणु० ज० ए०, उ० ऍकत्तीसं० सादि० । मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० उ० णाणाभंगो। अणु० ज० ए०, उ० असंखेंजा लोगा। चदुजादि-आदाव-थावरादि०४ उ. णाणा०भंगो। अणु० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि। wnwww ५८७. भव्योंमें ओघके समान भङ्ग है। अभव्योंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघ, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, छह नोकषाय, पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्त्र संस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। नपुंसकवेद, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। तीन आय और वैक्रियिक छहके उत्कृष्ट और अनु अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। तियञ्चायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर अोधके समान है। तिर्यञ्चगति,तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है। मनुष्यगति, मनुष्य गत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चार के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर हैं। विशेषाथ-भव्योंमें ओघके समान व्यवस्था बन जाती है, अतः यह ओघके समान कहा है। अभव्यों में प्रोघके समान अनन्त कालके अन्तरसे ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध १. ता० प्रा० प्रत्योः सत्तणोक, ति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy