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________________ ३५६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५८३. किण्णाए पंचणा-छदसणा०-बारसक०-भय-दु० अप्पसत्थ०४-उप०पंचंत० उ० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि०। अणु० ज० ए०, उ० बेसम० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०---अणंताणुबं०४-णस०---हुंडसंठा०--अप्पसत्थ०--दूभग--दुस्सर-- अणादें-णीचा० उ० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि०, अंतोमुहुत्तं लभदि पविसंतस्स । अणु० ज० ए०, उ० तेतीसं देसू० । सादा०-पुरिस०--हस्स-रदि-पंचिं० ओरालि०--समचदु०--ओरालि०अंगो० --वज्जरि०--पर०--उस्सा०--पसत्य०--तस०४ - थिरादिछ० उ० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० देसू० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । असादा०-अरदि-सोग-अथिर-असुभ०-अजस० उ० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि०।अणु० सादभंगो०। इत्थि०-तिरिक्ख-मणुस०-चदुसंठा०-पंचसंघ०-दोआणु०-उच्चा० उ० अणु० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० दे० । णिरय-देवायु० उ० ज० ए०, उ० अंतो० । अणु० ज० ए०, उ० बेस । तिरिक्रव-मणुसायु० उ० ज० ए०, उ० अंतो० । अणु० ज० ए०, उ० छम्मासं देसू। णिरयग०-देवगदि-चदुजादि-दोआणु०-आदाव-थावरादि४ भङ्ग है,यह स्पष्ट ही है। ५८३. कृष्णलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है, क्योंकि प्रवेश करनेवालेके अन्तमुहूर्त प्राप्त होता है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक बाङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क और स्थिर आदि छहके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश-कीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । स्त्रीवेद,तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, चार संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । नरकायु और देवायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मु हूते है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । तियश्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। नरकगति, देवगति, चार जाति, दो आनुपूर्वी, आतप और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट और १. ता. पा० प्रत्योः च्नुसंध० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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