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________________ अंतरपहवणा १४ उ. अणु० ज० ए०, उ० अंतो०। वेउव्वि०-वेउन्विअंगो० उ० ज० ए०, उ० अंतो। अणु० ज० ए०, उ० वावीसं साग० । [ तेजा०-क०-पसत्थवण्ण ४-अगु०-णिमि० उ० ज० एग०, उक० तेतीस देसू० । अणु० ज० एग०, उक्क० बेसम० । ] उज्जो० उ० ज० अंतो०, उ० तेतीसं देसू० । अणु० ज० एग०, उ० तेतीसं देसू० । तित्थय० णिरयायुभंगो'। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर बाईस सागर है। तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग नरकायुके समान है। विशेषार्थ-कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है, अतः यहाँ जिन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तीन गतिके जीव करते हैं,उनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर धिक तेतीस सागर कहा है। कारण कि कृष्णालेश्याके प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कराके इतना अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। स्त्यानगृद्धि तीन आदिका अविरत सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता है। अब किसी कृष्णलेश्यावालेने इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके सम्यक्त्व प्राप्त किया और अन्तमुहूर्तमें पुन: मिथ्यादृष्टि होकर इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किया तो इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है। यही कारण है कि यहाँ प्रवेश करनेवालेके अन्तमुहूर्त प्राप्त होता है, यह वचन कहा है। कृष्णलेश्यामें सम्यक्त्वका काल कुछ कम तेतीस सागर है। अतः यहाँ स्त्यानगृद्धि तीन आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। सातावेदनीय आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहनेका यही कारण है। मात्र यहाँ सम्यग्दृष्टिके प्रारम्भमें और अन्तमें ही इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कराके यह अन्तरकाल लाना चाहिए। तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। और इसी कारण असातावेदनीय आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त होनेसे वह सातावेदनीयके समान कहा है। स्त्रीवेद आदिका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध अपने स्वामित्वके अनुसार नरकमें ही होता है, इसलिए तो इनके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । यद्यपि स्त्रीवेद, चार संस्थान और पाँच संहननका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तीन गतिके जीव करते हैं, पर नरकके सन्मुख कृष्णलेश्यावालेके इनका बन्ध नहीं होता, अतः यह कुछ कम तेतीस सागर कहा है । तथा सातवें नरकमें मिथ्यादृष्टिके मनुष्यद्विक और उच्चगोत्रका और सम्यग्दृष्टिके शेषका बन्ध न होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी कुछ कम तेतीस सागर कहा है। तिर्यश्चों और मनुष्योंमें कृष्णलेश्याका काल अन्तमुहूर्त है, अतः यहाँ नरकायु और देवायुके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तिर्यश्च और १. ता. प्रतौ णिरयभंगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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