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________________ अंतरपरूवणा ३५५ ५८२. चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो। अचक्खु० ओघं। ओधिदं० ओधिणाणिभंगो। है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ओघके समान है। विशेषार्थ-ओघसे पाँच ज्ञानावरणादिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। असंयतोंकी कायस्थिति अनन्त काल होनेसे उनके यह अन्तर बन जाता है, अतः यह ओघके समान कहा है। परन्तु असंयतोंके इनका निरन्तर घन्ध होते रहनेसे यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय कहा है। यहाँ स्त्रीवेददण्डकसे. स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र ये १६ प्रकृतियाँ ली गई हैं। इनके तथा स्त्यानगृद्धि तीन आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर नपुंसकवेदी जीवोंके समान यहाँ भी बन जाता है, अतः यह उनके समान कहा है। सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध यहाँ संयमके अभिमुख हुए जीवके होता है, अतः यहाँ इसके अन्तर कालका निषेध किया है। तथा ये सब परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका ओघके समान जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त बन जानेसे वह ओघके समान कहा है। ओघसे असातावेदनीय आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। यह यहाँ भी सम्भव है, अत: यह ओघके समान कहा है। इसी प्रकार आगे जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट या दोनोंका अन्तर ओघके समान कहा है वह देखकर घटित कर लेना चाहिए। देवायुका असंयतोंके एक समयके अन्तरसे और अनन्त काल के अन्तरसे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, अतः इसके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। असंयतोंमें तेतीस सागर काल तक नारक पर्याय में रहते हुए और वहाँसे आकर तथा जानेके पूर्व अन्तर्मुहूर्त काल तक चार जाति आदिका वध नहीं होता, अत: इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । तैजसशरीर आदि ध्रुववन्धिनी प्रकृतियाँ हैं और इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संयमके अभिमुख हुए जीवके होता है, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । नारक सम्यग्दृष्टिके कुछ कम तेतीस सागर काल तक उद्योतका बन्ध नहीं होता, अतः इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। संयमके अभिमुख हुए जीवके तीर्थ कृतिका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध होता है, अतः ओषके समान इसके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा द्वितीय और तृतीय नरकमें जानेवाला जीव मिथ्यादृष्टि होकर इसका अन्तमुहूर्त काल तक बन्ध नहीं करता, अतः इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। ५८२. चक्षुदर्शनी जीवोंमें सपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । अचक्षुदर्शनी जीवोंमें पोषक समान भङ्ग है और अवधिदर्शनी जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-सपर्याप्त प्रायः चक्षुदर्शनी होते हैं। मात्र द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीव चक्षुदर्शनी नहीं होते। अचक्षुदर्शन व्यापक मार्गणा है। इसमें एकेन्द्रियादि सभी जीव सम्मिलित हैं और अवधिदशेन अवधिज्ञानका सहचर है, अतः चक्षुदर्शनी जीवोंका त्रसपयोप्तकों के समान, अचक्षुदर्शनी जीवोंका ओयके समान और अवधिदर्शनी जीवोंका अवविज्ञानी जीवोंके समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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