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________________ ३४८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ज० एग०, उ० तिण्णिपलि० देसू० । तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०-णिमि० उ. अणु० णत्थिं' अंतरं। उज्जो० उ० णत्थि अंतरं। अणु० ज० एग०, उ० ऍक्कत्तीसं० सादि। अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । तैजस शरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है। विशेपार्थ-ओघसे पाँच ज्ञानावरणादिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय कहा है। वह इन दोनों अज्ञानोंमें बन जाता है, अतः यह ओघके समान कहा है। यहाँ सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संयमके अभिमुख हुए जीवके होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। किन्तु ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। असातावेदनीय आदिका एक समयके अन्तरसे और कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो यह सम्भव है, ओघसे भी यह अन्तर इतना ही उपलब्ध होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान कहा है । परावर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे इनके अनुकृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त ओघसे कहा है। यह यह बन जाता है, अतः यह भी ओघके समान कहा है। नपुंसकवेद आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल ओघसे कहा है। वह यहाँ भी बन जाता है, अतः यह भी अोधके समान कहा है। तथा पर्याप्त भोगभूमियाके इनका बन्ध नहीं होता और यह काल कुछ कम तीन पल्य है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। अनन्त काल तक तिर्यञ्च पर्यायमें रहते हुए तीन आयु आदिका बन्ध प्रारम्भ न भी हो, क्योंकि तिर्यञ्चोंमें एकेन्द्रियोंकी मुख्यता है और ये एक मात्र तिर्यञ्चायुका ही बन्ध करें । तथा कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें इन प्रकृतियोका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध हो और मध्यमें न हो यह सम्भव है,अतः यहाँ इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट अनभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। इसी प्रकार तिर्यञ्चायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल अनन्त काल घटित करना चाहिए। तथा इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरपृथक्त्वसे अधिक नहीं प्राप्त होता। कारण कि तियश्च पर्यायका उत्कृष्ट अन्तर इतना ही है। ओघसे भी तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर इतना ही है, अतः यह प्ररूपणा ओघके समान की है। तिर्यञ्चगतिद्विकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका ओघसे जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है । वह यहाँ बन जाता है, अतः यह ओघके समान कहा है। तथा नौवें अवेयकमें इकतीस सागर काल तक और वहाँ जानेके पूर्व और बादमें अन्तमुहूर्त कालतक इनका बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर कहा है। मनुष्यगति आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए देव नारकीके होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। ओघसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण घटित करके बतला आये हैं। यहाँ भी वह बन जाता है, अतः यह ओघके समान कहा है । संयमके अभिमुख हुए जीवके देवगति चारका उत्कृष्ट अनु १. श्रा० प्रती उणस्थि इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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