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________________ अंतरपरूषणा ३४७ ५७६. मदि- सुद० पंचणा० णवदंसणा ०-मिच्छ०-सोलसक० ६०--भय०- दु० - अप्पसत्थ०४–उप०-पचंत० उक्क० ओघं । अणु० ज० एग०, उ० बेसम० । सादी०पंचिदि ० - समचदु० - पर० - उस्सा० पसत्थवि०-तस०४ - थिरादिक० उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० एग०, उ० अंतो० । असादा० छण्णोक ०- अथिर- असुभ अजस० उ० अणु० ओघं । णवंस० पंचसंठा ०-पंच संघ० - अप्पसत्थ० - दूभग- दुस्सर-- अणादें० -- णीचा० उ० ओघं । अणु० ज० एग०, उ० तिष्णिपलि० सू० । तिण्णिआयु० - णिरयगदि-रियाणु० उक्क० अणु० ज० एग०, उ० अनंतका० । तिरिक्खायु० ओघं । तिरिक्खगदि - तिरिक्खाणु० उ० ओघं । अणु० ज० एग०, उ० ऍक्कत्तीसं० सादि० । मणुसगदि ० ३ उ० णत्थि अंतरं । अणु० ओघं । देवगदि०४ उ० णत्थिं० अंतरं । अणु० ओघं । चदुजादि -आदाव - थावरादि०४ [ उक्क० ] ओघं । अणु० ज० एग०, उ० तेत्तीस • सादि० । ओरालि० - - ओरालि० अंगो०- वज्जरि० उ० णत्थि अंतरं । अणु० विवक्षित कषायके साथ मर कर देव हो जावे, तो विवक्षित कषायमें उन उन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन क्रोधकषाय के समान है, यह स्पष्ट ही है । ५७६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, श्रप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ओघ के समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । सातावेदनीय, पञ्च ेन्द्रियजाति, समचतुरस्त्र संस्थान, परघात, उच्छ्रवास, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क और स्थिर आदि छहके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तमुहूर्त है । असातावेदनीय, छह नोकषाय, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर के समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। तीन आयु, नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है । तिर्यवायुका के समान है । तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग श्रोघके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । मनुष्यगतित्रिक के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग घ के समान है । देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ओधके समान है। चार जाति आतप और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ओघके समान | अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर हैं। श्रदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराचसंहननके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट , १. ता० प्रतौ बेस० सादि० । पंचिं० इति पाठः । २. ता० प्रतौ देवगदि०४ यत्थि इति पाठः । ३. ता० आ० प्रत्योः थावरादि४ श्रधं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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