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________________ अंतरपरूवणा ३२७ उक्क. बेसाग० सादि० । ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्य०४-अगु०३-बादस्पज्जतपत्ते-णिमि०-तित्थ० उ० ज० एग०, उ० तेतीसं० देसू० । अणु० ज० एग०, उ. बेसम० । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो अंतरं णेदव्वं याव सव्वह त्ति । ५६२. एइंदिएस धुविगाणं उ० ज० एग०, उ० असंखेज्जा लोगा। बादरअंगुल० असंखें । पज्जत्ते संखेंजाणि वाससहस्साणि । मुहुमे असंखेंजा लोगा । के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर. प्रशस्त वर्णचतष्क. अगरुलपत्रिक. बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और तीर्थकरके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धितकके सब देवोंके अपना-अपना अन्तर ले आना चाहिए। _ विशेषार्थ-देवोंमें पाँच ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका ओघ उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सहस्रार कल्प तक होता है आगे नहीं, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर कहा है। स्त्यानगृद्धि आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके विषयमें यही बात है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान कहा है। तथा इनका बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है। यहाँ नौवें अवेयकके प्रारम्भमें और अन्तमें इनका बन्ध करा के और मध्यमें उस जीवको सम्यग्दृष्टि रखकर यह अन्तर काल ले आना चाहिए । देवों में सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टि सर्वविशुद्ध देवके होता है। सर्वार्थसिद्धिमें भी यह सम्भव है। अतः सर्वार्थसिद्धि में प्रारम्भमें और अन्तमें इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करानेसे यह कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है। तथा ये सब सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । असातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सहस्रार कल्प तक ही होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरण के समान कहा है। तथा ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान बन जानेसे वह उसके समान कहा है। दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंके समान है ,यह स्पष्ट ही है। तिर्यश्चगतित्रिक का बन्ध सहस्रार कल्प तक ही होता है, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर कहा है। मात्र उत्कृष्ट अनुभागबन्धका यह अन्तर प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कराके तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर प्रारम्भ और अन्तमें अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध कराके और मध्यमें अन्तरकाल तक सम्यग्दृष्टि रखकर यह अन्तर ले आना चाहिए। इसी प्रकार एकेन्दियजाति आदिके उत्कष्ट और अनत्कृष्ट अनभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर ले आना चाहिए। मात्र इनका बन्ध ऐशान कल्प तक होता है, इसलिए यह साधिक दो सागर कहना चाहिए। औदारिकशरीर आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर सातावेदनीय आदि की तरह घटित कर लेना चाहिए। इसी प्रकार सब देवोंके अपनी-अपनी स्थिति आदिको जानकर अन्तर काल प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए वह अलगसे नहीं कहा। ५६२. एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। बादरोंमें अङ्गुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। बादर पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है और सूक्ष्मोंमें असंख्यात लोक प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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