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________________ ३२८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अणु० ज० एग०, उ० बेसम० । तिरिक्वायु० उक्क० ओघं । अणु० ज० एग०, उ० बावीसं वाससहस्साणि सादि० । सुहुमाणं अंतो० । मणुसायु० उ० अणु० ज० एग०, उक्क. सत्तवाससहस्साणि सादि० । सुहुमाणं' अंतो० । मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० उ. अणु० ज० एगे० उ० असंखेंज्जा लोगा। बादरे० अंगुल० असं० । अणु० ज० एग०, उक्क० कम्महिदी०। पज्जत्ते उक्क० अणु० ज० एग०, उक्क० संखेंजाणि वाससहस्साणि । सुहुमे असंखेंजा लोगा। उज्जो० उ० ज० एग०, उ० अणंतका० । बादरे अंगुल० असं०। पज्ज संखेज्जाणि वाससहस्सा। सुहुमे असंखेंजा लोगा। सेसाणं उ० णाणा भंगो । अणु० ज० एग०, उ० अंतो। तथा इन सबमें अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। तियश्चायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर आघके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है । मात्र सूक्ष्मोंमें यह उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात हजार वर्ष है। सूक्ष्मोंमें यह उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। बादरोंमें अङ्गलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तथा बादरोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कर्मस्थिति प्रमाण है। बादर पर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है । सूक्ष्मोंमें असंख्यात लोकप्रमाण है । उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। बादरों में अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। बादर पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है और सूक्ष्मोंमें असंख्यात लोकप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं और एकेन्द्रियों में बादर एकेन्द्रियोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। बादर एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। बादर पर्याप्तकोंकी संख्यात हजार वर्ष है और सूक्ष्मोंकी असंख्यात लोकप्रमाण है। अतः यहाँ यह अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण कहा है। मात्र यहाँ अपनी-अपनी कायस्थितिके प्रारम्भ में और अन्त में उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कराके उत्कृष्ट अन्तरकाल लाना चाहिए। यहाँ यह शंका होती है कि जिस प्रकार इन बादर एकेन्द्रिय आदिमें यह अन्तर काल प्राप्त किया गया है,उसी प्रकार एकेन्द्रियोंमें यह अन्तरकाल अनन्तकाल क्यों नहीं कहा, क्योंकि बादर एकेन्द्रिय आदिके समान एकेन्द्रियोंकी कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कराके उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल लाने में कोई बाधा नहीं आती। प्रश्न ठीक है पर अनुभागबन्धके योग्य परिणाम असंख्यात लोकसे अधिक नहीं हैं, अतः इनमें उत्कृष्ट अन्तर बहुत ही अधिक हो तो वह असंख्यात १. ता. प्रतौ -सहस्साणि । सादादि० सुहुमाणं, श्रा० प्रतौ-सहस्साणि । सादा० सुहमाणं इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ अणु० एग० इति पाठः। ३. ता० प्रती उ० संखेजाणि, श्रा० प्रतौ उक्क० असंखेजाणि इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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