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________________ ३१६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५६१. देवेमु पंचणा०--छदसणा०--बारसक०-भय--दु०--अप्पसत्थ०४-उप०पंचंत० उ० ज० एग०, उ० अटारस० सादि० । अणु० ज० एग०, उ० बेसम० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबं०४-इत्थि०-णवंस०-पंचसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०दृभग-दुस्सर-अणादें-णीचा० उक्क० णाणाभंगो । अणु० ज० एग०, उ० ऍकत्तीसं० देसू० । सादा०-मणुस०--पंचिंदि०-समचदु०--ओरालि० अंगो०--वजरि०-मणुसाणु०पसत्थ०-तस-थिरादिछ०-उच्चा० उ० ज० एग०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । अणु० ज० एग०, उ० अंतो० । असादा०-पंचणोक०-अथिर-असुभ-अजस० उ० णाणाभंगो । अणु० सादभंगो । दोआयु० णिरयभंगो। तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-उज्जो० उ० अणु० ज० एग०, उ० अहारस० सादि० । एइंदि०-आदाव-थावर० उ० अणु० ज० एग०, अनुभागबन्धका अन्तर भी उसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र तिर्यञ्चोंके तीन आयुओंमें तिर्यश्चायु सम्मिलित न थी सो यहाँ तीन आयुओंसे मनुष्यायु अलग करनी चाहिए । आहारकद्विक और तैजसशरीर आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रोणिमें होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा आहारकद्विकका बन्ध न होकर पुनः बन्ध कमसे कम अन्तमुहूर्तके बाद और अधिकसे अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्व कालके बाद ही सम्भव है, क्योंकि सातवेंसे छठेमें आनेपर पुनः सातवें गुणस्थानकी प्राप्ति अन्तमुहूर्तके बाद होती है तथा पूर्वकोटिपृथक्त्व कालक प्रारम्भ और अन्तमें सातवें गुणस्थानकी प्राप्ति होकर इनका बन्ध हो और मध्यमें न हो यह भी सम्भव है, अतः यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। तथा तैजसशरीर आदिकी उपशम श्रोणिमें बन्धव्युच्छित्ति होकर पुनः उतरनेपर यदि इनका बन्ध हो तो अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्तकालका अन्तर पड़ता है, अतः यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। ५६१. देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जगप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। सातावेदनीय, मनुष्यगति, पञ्चन्द्रिय जाति, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक अाङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। असातावेदनीय, पाँच नोकषाय, अस्थिर, अशभ और अयश:कीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है। दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंके समान है। तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावर १. प्रा. प्रतौ अप्पसत्य उप० इति पाठः । २. ता. श्रा०प्रत्योः तस०४ थिरादिछ० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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