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________________ अंतरपरूवणा ३२५ अणताणुबं०४-इत्थि. पंचिंदियतिरिक्खभंगो। सादा-देवग-पंचिंदि०-वेउवि०-समचदु०-बेवि०अंगो०-देवाणु०-पर०-उस्सा०-पसत्यवि०-तस०४-थिरादिछ०-[उच्चा०] उ० पत्थि अंतरं । अणु० ओघं । असादा०-पंचणोक०-अथिर-असुभ-अजस० उ० णाणा०भंगो। अणु० सादभंगा। अट्टक०-णस-तिण्णिगदि-चदुजादि-ओरालि०-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-तिण्णिआणु-आदाउज्जो०-अप्पसत्थ०-थावरादि०४दूभग-दुस्सर-अणादें-णीचा० उ० अणु० जोणिणिभंगो। तिण्णिआयु० उ० अणु० ज० एगे०, उ० पुवकोडितिभागं देसूणं । मणुसायु० उ० ज० एग०, उ० पुव्वकोडिपुध० । अणु० ज० एग०, उ० पुवकोडी सादि० । आहारदुग० उ० पत्थि अंतरं । अणु० ज० अंतो०, उ० पुव्बकोडिपुधत्तं । तेजा-क०-पसत्थव०४ -अगु-णिमि०तित्थ० उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० उक्क० अंतो० । श्रोधके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदका भङ्ग पञ्च. न्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है। सातावेदनीय, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। असातावेदनीय, पाँच नोकषाय, अस्थिर, अशुभ और अयशाकीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है। आठ कषाय, नपुंसकवेद, तीन गति, चार चाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चयोनिनके समान है। तीन आयुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिके कुछ कम विभाग प्रमाण है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है। आहारकद्विकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, निर्माण और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल जिस प्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चके घटित करके बतला आये हैं,उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। मनुष्योंमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव होनेसे यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुागबन्धका अन्तर ओघके समान बन जानेसे वह वैसा कहा है। स्त्यानगृद्धि तीन आदिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है,यह स्पष्ट ही है। सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध यहाँ क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इसके अन्तरका निषेध किया है। तथा इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओधके समान है, यह स्पष्ट ही है। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चके आठ कषाय आदिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जो अन्तर कहा है वह यहाँ भी बन जाता है, इसलिए यह पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान कहा है। तीन आयु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट १. पा. प्रतौ उ० ज० एग० इति पाठः । २. ता. श्रा० प्रत्योः पसस्थवि०४ अगु० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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