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________________ ३२४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ___ ५५६. पंचिंदि तिरि०अप० पंचणा०-णवदसणा०-मिच्छ०--सोलसक०--भयदु०-ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० उ० ज० एग०, उ० अंतो० । अणु० ज० एग०, उ० बेसम० । सेसाणं उ० अणु० जे० एग०, उ. अंतो० । एवं सव्वअपज्जत्ताणं तसाणं थावराणं चे सुहुमपज्जत्ताणं ।। ५६०. मणुस०३ पंचणा०-छदंसणा०-चदुसंज०-भय-दु०-अप्पसत्थ०४-उप०पंचंत० उ० ज० एग०, उ० पुवकोडिपुध० । अणु० ओघं । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०पूर्व प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेपर उसका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। भोगभूमिमें इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव न होनेसे उसकी स्थितिका यहाँ ग्रहण नहीं किया। इसी प्रकार सातावेदनीयदण्डक, स्त्यानगृद्धिदण्डक और अप्रत्याख्यानावरण चार दण्डकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर घटित कर लेना चाहिए । अप्रत्याख्यानावरण चारका संयतासंयतके और इस दण्डकमें कही गई शेष प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्व कोटि कहा है। यहाँ पर्यायके प्रारम्भमें और अन्त में अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध कराके यह अन्तर लाना चाहिए। सब आयुओंके अनुभागबन्धका अन्तर काल सामान्य तिर्यश्चोंके समान बन जाता है। मात्र तिर्यश्चायुमें विशेषता है । भोगभूमिको छोड़कर तिर्यश्चोंकी कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। यह सम्भव है कि कोई तिर्यश्च इसके प्रारम्भ और अन्तमें तिर्यश्चायुका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करे और मध्यमें न करे, अतः इसके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। ५५६. पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलबु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार त्रस और स्थावर सब अपर्याप्त और सूक्ष्म पर्याप्तकोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई सब ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय कहा है। तथा शेष सब अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, अतः उनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त बन जानेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। स्थावर और बस सब अपर्याप्त तथा सूक्ष्म पर्याप्तकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है और स्वामित्वकी अपेक्षा भी कोई अन्तर नहीं है, अतः उनका कथन पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है,यह कहा है। ५६०. मनुष्यत्रिकमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वणेचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर १.पा.प्रतौ उ० ज० इति पाठः । २. ता. प्रतौ तसाण च इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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