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________________ अंतरपरूवणा ३२३ ५५८. पंचिंदियतिरिक्व०३ पंचणा-छदसणा-अहक०-भय-दु०-तेजा.-क०पसत्थापसत्थ०४-अगुउप०-णिमि-पंचंत० उ० जह० एग०, उ० पुव्वकोडिपुधत्तं । अणु० ज० एग०, उक्क० बेसम० । सादासाद०--पंचणोक०-देवगदि०४-पंचिंदि०समचदु०-पर०-उस्सा-पसत्थ०--तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग--सुस्सर-आदेजस०-अजस०-उच्चा० उ० णाणाभंगो। अणु० ओघं । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०अणंताणुवं०४-इत्थि० उ० गाणाभंगो। अणु० तिरिक्खोघं। अपञ्चक्खाणा०४णमुस-तिण्णिगदि-चदुजादि-ओरालि०--पंचसंठा-ओरालि०अंगो०-छस्संघ-तिण्णिआणु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थवि०-थावरादि०४-दूभग-दुस्सर--अणादें-णीचा० उ० णाणाभंगो। अणु० ज० एग०, उ० पुव्वकोडी देसू० । चदुआयु. तिरिक्खोघं । णवरि तिरिक्वायुग० उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । और उत्कृष्ट अन्तर घटित कर लेना चाहिए। तथा इन पाँचों प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल ओधके समान है,यह स्पष्ट हो है। तेजसशरीर आदि का उत्कृष्ट अनुभाग. बन्ध संयतासंयलके होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय कहा है। ५५८. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, पाँच नोकषाय, देवगतिचतुष्क, पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयश कीर्ति और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ज्ञानावरण के उत्कृष्टके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ओघके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। अप्रत्याख्यानावरण चार, नपुंसकवेद, तीन गति, चार जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। चार आयुका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। विशेषार्थ-अबतक जो अन्तरकालका स्पष्टीकरण किया है, उससे यहाँसे लेकर आगेके अन्तरकालके रामझने में बहुत कुछ सहायता मिलती है।अतः सर्वत्र जो विशेषता होगी, उसका ही निर्देश करेंगे। पञ्चन्द्रियतिर्यश्चत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य प्रमाण है । अतः किसी उक्त तिर्यञ्चके अपनी कायस्थितिके प्रारम्भमें और भोगभूमिमें उत्पन्न होनेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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