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________________ ३२२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे wwwrrrrrmware विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल ओघके समान बन जाता है. इसलिए वह श्रोधके समान कहा है। तथा इनके उत्कष्ट अनुभागवन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय ण्डकमें कही कई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल ओघके समान है,यह स्पष्ट ही है। इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध एक समयके अन्तरसे होता है, इसलिए यह अन्तर एक समय कहा है। तथा तिर्यश्चोंमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है और इतने काल तक स्त्यानगृद्धि आदिका बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। संयतासंयत सर्वविशुद्ध पश्चन्द्रिय तिर्यश्च पश्चन्द्रियजाति आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है। यह एक समयके अन्तरसे भी सम्भव है और कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनके अन्तरसे भी सम्भव है, अतः यहाँ इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा ये परावर्तमान प्रकृति होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त होनेसे वह ओघके समान कहा है। असातावेदनीय आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्ते ओघके समान यहाँ भी बन जाता है, अतः वह ओघके समान कहा है। अप्रत्याख्यानावरण चार आदिके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका अोघ के समान जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है,यह स्पष्ट ही है। तथा इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध कमसे कम एक समयके अन्तरसे होता है और कर्मभूमिज सम्यग्दृष्टि तिर्यश्चके इनका बन्ध नहीं होता, अत: इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। तिर्यञ्चोंमें तीन आयुका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध विभागके प्रारम्भमें और अन्तमें सम्भव है तथा कमसे कम एक समयके अन्तरसे भी हो सकता है, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण कहा है। तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट जो अन्तर ओघसे घटित करके बतला आये हैं,वह यहाँ भी बन जाता है, अतः वह अोधके समान कहा है। तथा इसके अनुत्कृष्ट अनुभागका कमसे कम एक समयके अन्तर बन्ध सम्भव है और पिछले भवमें पूर्वकोटिके त्रिभागमें एक पूर्वकोटि प्रमाण तिर्यञ्चायुका बन्ध करके वर्तमान पर्यायमें अन्तमुहूर्त शेष रहने पर तिर्यश्चायुका बन्ध करे तो साधिक एक पूर्वकोटिके अन्तरसे भी तिर्यञ्चायुका बन्ध सम्भव है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि कहा है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका ओघ से जो दोनों प्रकारका अन्तर बतलाया है वह तिर्यञ्चों की मुख्यतासे ही बतलाया है, अतः यह ओघके समान कहा है। मनुष्यगतिद्विकका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध एक समयके अन्तरसे भी सम्भव है और अधिकसे अधिक अनन्त कालके अन्तरसे होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है, यह स्पष्ट ही है। देवगतिचतुष्कका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कमसे कम एक समयके अन्तरसे होता है और जो अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालके प्रारम्भ और अन्तमें संयतासंयत हो इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, उसके अधिकसे अधिक इतने कालके अन्तरसे इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है। इसीसे इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण कहा है । इसी प्रकार उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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