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________________ सामित्तपरूवणा १३. विवागदेसेण छष्णं कम्माणं जीवविवाग० । आयुग० भवविवाग० । णामस्स जीवविवाग० पोंगल विवाग० खेत्तविवाग० । एवं याव अणाहारग ति णेदव्वं । १४. पसत्थापसत्थपरूवणदाए चत्तारि घादीओ अप्पसत्थाओ । वेदणी ० - आयुग०णाम ० - गोद० पसत्थाओं अप्पसत्थाओ य । एवं याव अणाहारग त्ति दव्वं । १५. एदेण अट्ठपदेण सामित्तं दुविधं - जहण्णयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि०-ओघेण आदे० | ओघे० णाणावर ० - दंसणावर ० - मोहणी ० - अंतराइगाणं उकस्सअणुभागबंध कस ? अण्णद० चदुगदियस्स पंचिंदियस्स सण्णिमिच्छादिट्ठिस्स सव्वाहि पञ्जत्तीहि पजत्तगदस्स सागार - जागार० णियमा उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स उकस्सगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । वेदणीय - णामा-गो० उक्क० अणुभागबं० कस्स १ अण्णद० खवगस्स सुहुम० चरिमे उकस्सए अणुभाग० वट्टमा० । आयु० उक्क० अणुभाग० १ अप्पमत्त विशेषायें - यहाँ प्रत्यय शब्दसे बन्धके हेतुओंका ग्रहण किया है । बन्धके हेतु चार हैंमिध्यात्व, असंयम, कषाय और योग । अन्यत्र प्रमादको भी बन्धका हेतु कहा है । किन्तु वह असंयम और कषायकी मिलीजुली अवस्था है, इसलिए यहाँ उसका पृथक्से निर्देश नहीं किया है । वेदनीयका केवल योगहेतुक भी बन्ध होता है, इसलिए उसके बन्धके हेतु चार कहे हैं। शेष छह कर्मोका केवल योगहेतुकबन्ध नहीं होता, इसलिए उनके बन्धके हेतु तीन कहे हैं । यहाँ आयुकर्मका किंनिमित्तक बन्ध होता है, इसका निर्देश नहीं किया । कारण कि उसका सार्वकालिकबन्ध नहीं होता । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जहाँ मिथ्यात्वबन्धका हेतु है वहाँ शेष सब हैं। असंयमके सद्भावमें मिथ्यात्व है भी और नहीं भी है । किन्तु कषाय और योग अवश्य हैं। कषायके सद्भावमें मिथ्यात्व और असंयम हैं भी और नहीं भी हैं, किन्तु योग अवश्य है । योगके सद्भावमें प्रारम्भके तीन हैं भी और नहीं भी हैं। १३. विपाक देशकी अपेक्षा छह कर्म जीवविपाकी हैं। आयुकर्म भवविपाकी है तथा नामकर्म विपाकी पुलविपाकी और क्षेत्रविपाकी है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । १४. प्रशस्ताप्रशस्त प्ररूपणाकी अपेक्षा चार घातिकर्म अप्रशस्त होते हैं । वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म प्रशस्त और प्रशस्त दोनों प्रकारके होते हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये | 'विशेषार्थ - अन्यत्र जिनकी पुण्य और पाप संज्ञा कही है, उन्हीं की यहाँ प्रशस्त और अपशस्त संज्ञा दी है। चार अघातिकर्मोंका अनुभागबन्ध अप्रशस्त ही होता है । तथा शेष चार कर्मोंका अनुभागबन्ध दोनों प्रकारका होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । आशय यह है कि शेष चार कमके अवान्तर भेदोंमें कोई प्रशस्त प्रकृतियाँ होती हैं और कोई अप्रशस्त, इसलिए यहाँ पर इन चार कर्मोंको दोनों प्रकारका कहा है । १५. इस अर्थ पदके अनुसार स्वामित्व दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग बन्धका स्वामी कौन है ? पचेन्द्रिय, संज्ञी, मिध्यादृष्टि, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त, साकार, जागृत नियमसे उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला और उत्कृष्ट अनुभाग बन्धमें अवस्थित अन्यतर चार गतिका जीव उक्त कर्मोंके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धका स्वामी है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध में अवस्थित अन्यतर क्षपक उक्त कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । आयु कर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत तत्प्रायोग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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