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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १२ सामित्तपरूवणा १२. एत्तो सामित्तस्स' कच्चे तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-पचयाणुगमो विवागदेसो पसत्थापसत्थपरूवणा चेदि । पचयाणुगमेण छण्णं कम्माणं मिच्छत्तपच्चयं असंजमपञ्चयं कसायपचयं । वेदणीयस्स मिच्छत्तपचयं असंजमपञ्चयं कसायपचयं योगपञ्चयं । एवं णेदव्वं याव अणाहारए त्ति । विशेषार्थ-चार घातिकर्मों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध कादाचित्क होते हैं तथा जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणीमें होता है, इसलिए ये तीनों सादि और अध्रवके भेदसे दो-दो प्रकारके होते हैं । अब रहा अजघन्य अनुभागवन्ध सो जघन्य अनुभागबन्धके प्राप्त होनेके पूर्व तक अनादिकालसे जितना भी अनुभागबन्ध होता है,वह सब अजघन्य है । तथा उपशमश्रेणिमें इन चार घातिकमोंकी बन्धव्युच्छित्ति होकर पुनः इनका बन्ध होने लगता है, इसलिए अजघन्य अनुभागबन्धके सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव ये चारों विकल्प बन जाते हैं। वेदनीय और नामकर्मका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध कादाचित्क होता है और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए ये तीनों सादि और अध्रवके भेदसे दो-दो प्रकारके होते हैं। अब रहा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सो उत्कृष्ट अनुभागबन्धके प्राप्त होने के पूर्वतक वह अनादि है और उपशमश्रेणिमें उस अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धकी व्युच्छित्ति होकर पुनः उसका बन्ध होने पर वह सादि है, इसलिए अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव ये चारों विकल्प बन जाते हैं। गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें और जघन्य अनुभागबन्ध सातवीं पृथिवीमें सम्यक्त्वके अभिमुख होने पर प्राप्त होता है, इसलिए ये दो सादि और अध्रुव हैं । तथा इनके प्राप्त होनेके पूर्वतक अनुत्कृष्ट और अजघन्य अनुभागबन्ध अनादि है और उपशमश्रेणिमें इनकी बन्धव्यच्छित्ति होकर पुनः इनका बन्ध होने पर ये सादि हैं, इसलिए अनुत्कृष्ट और अजघन्य अनुभागबन्धके सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव ये चारों विकल्प होते हैं। यहाँ सर्वत्र ध्रुव अभव्योंकी अपेक्षा और अध्रुव भव्योंकी अपेक्षा कहा है । आयुकर्मका बन्ध कादाचित्क है इसलिए इसके उत्कृष्ट आदि चारोंके सादि और अध्रव ये दो ही विकल्प होते हैं। मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य और मिथ्यादृष्टि इन मार्गणाओंमें यह ओघप्ररूपणा अविकल बन जाती है, क्योंकि एक तो ये अनादिकालसे सदा बनी रहती हैं दूसरे गुणप्रतिपन्न होनेके बाद पुनः मिथ्यात्वमें आने पर इनकी प्राप्ति सम्भव है । उसमें भी अचक्षुदर्शनी और भव्य मार्गणा गुणप्रतिपन्न जीवोंके भी क्रमसे क्षीणमोह और अयोगिकेवली गुणस्थान तक पाई जाती हैं, इसलिए इन सब मार्गणाओंमें ओघप्ररूपणाके समान निर्देश किया है। मात्र भव्यमार्गणामें ध्रुव विकल्प घटित नहीं होता, इतना विशेष जानना चाहिए। शेष सब मार्गणाएँ यथासम्भव बदलती रहती हैं, इसलिए उनमें उत्कृष्ट आदि चारों सादि और अध्रुव ये दो प्रकारके ही प्राप्त होते हैं । यदापि अभव्य मार्गणा ध्रुव है फिर भी उसमें उत्कृष्ट आदि अनुभागबन्धोंके अनादि और ध्रुव न होनेसे सादि और अध्रुव ये दो विकल्प ही घटित होते हैं। १२ स्वामित्वप्ररूपणा १२. आगे स्वामित्वका कथन करनेके लिए वहाँ ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं-प्रत्ययानुगम, विपाकदेश और प्रशस्ताप्रशस्त प्ररूपणा । प्रत्ययानुगमकी अपेक्षा छहकर्म मिथ्यात्वप्रत्यय, असंयमप्रत्यय और कषायप्रत्यय होते हैं। वेदनीयकर्म मिथ्यात्वप्रत्यय, असंयमप्रत्यय, कषायप्रत्यय और योगप्रत्यय होता है । इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जानना चाहिये ! १. मूलप्रतौ सामित्तस्स कम्म तत्य इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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