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________________ २६४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अज० जह० एग०, उ० पणवण्णं पलि० देसू० । देवगदि०-देवाणु० ज० ज० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अज० ज० एग०, उ. तिण्णि पलि० देसू० । पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-तस० ज० ज० एग०, उक्क० बेसमः। अज० ज० एग०, उक्क० पणवण्णं पलि० देसू० । ओरालि०-पर०--उस्सा०-बादरपज्जत्त-पत्ते० ज० ज० एग०, उक्क बेसम० । अज० जह० एग०, उक्क० पणवण्णं पलि० सादि० । वेउव्वि० वेउव्वि०अंगो० ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अज० ज० एग०, उ० तिण्णि पलि० देमू० । तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०--णिमि० ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अज० ज० एग०, उ० पलिदोवमसदपुधत्तं । तित्थय० ज० एग० । अज० [ज० ] एग०, उ० पुव्वकोडी देसू० । वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य है। देवगति और देवगत्यानुपूर्वी के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। पञ्चद्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और उसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य है । औदारिकशरीर, परघात, उच्छवास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य है । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ पल्य पृथक्त्वप्रमाण है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। विशेषार्थ--यहाँ प्रथमदण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका बन्ध कायस्थिति प्रमाण काल तक सम्भव । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल भी यही है। इसीसे इन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान कहा है। मात्र मिथ्यात्वका निरन्तर बन्ध कमसे कम अन्तर्मुहूर्त तक अवश्य होता है, क्यों कि मिथ्यात्व गुणस्थानका इससे कम काल नहीं है, इसलिए इस प्रकृतिके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है । सातावेदनीय आदि या तो सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं या उत्कृष्टसे अन्तर्महत काल तक बँधनेवाली प्रकृतियाँ हैं. इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। यही बात स्त्रीवेद आदि तीसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके विषयमें जाननी चाहिए । पुरुषवेदका सम्यग्दृष्टि देवियों के निरन्तर बन्ध होता है और स्त्रीवेदियोंमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य है, अतः इसके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। हास्य और रति ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं और आहारक द्विकका बन्धकाल ही अन्तमुहूर्त है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। सम्यग्दृष्टि देवियोंके मनुष्यगति आदिका ही बन्ध होता है, इनकी प्रतिपक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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