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________________ कालपरूवणा २६३ ५३४. इत्थिवे० पंचणा०--णवदंसणा०--मिच्छ०--सोलसक०-भय-दु०--अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० ज० एग० । अज० अणुभंगो। णवरि मिच्छ० अज० ज० अंतो० । सादासाद०-चदुआयु०-णिरय०--तिरिक्व०-चदुजादि-पंचसंठा०--पंचसंघ०दोआणु०--अप्पसत्थ०.-थावरादि०४-थिरादितिण्णियुग०-दूभग०-दुस्सर०--अणादेंणीचा० ज० ज० एग०, उक्क० चत्तारिसम०। अज० ज० एग०, उ. अंतो० । इत्थि०-णस० अरदि-सोग-आदाउज्जो० ज० ज० एग०, उ० बेसम० । अज० ज० एग०, उ० अंतो० । पुरिस० ज० एग० । अज० ज० एग०, उक्क० पणवणं पलिदो० देसू० । हस्स-रदि-आहारदुगं ज० एग० । अज० ज० एग०, उ० अंतो० । मणुस०-समचदु०-वजरि०-मणुसाणु०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदें-उच्चा० ज० ज० वर्तमान मध्यम परिणामोंसे होता है तथा कार्मणकाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है। स्त्रीवेद आदि तीसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका बन्ध उन्हीं जीवोंके होता है जो अधिक से अधिक दो विग्रहसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। यही बात पुरुषवेद आदि चौथे दण्डकमें कही गई प्रकृतियांक विपयम जाननी चाहिए। नपुंसकवेद, अरति और शोक का जघन्य अनुभागबन्ध अपने-अपने योग्य विशुद्ध परिणामोंसे होता है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है,यह स्पष्ट ही है। यहाँ विकल्परूपसे सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके जघन्य और उत्कृष्ट कालका निर्देश किया है सो आगमसे जानकर उसकी संगति बिठलानी चाहिए। इससे ऐसा विदित होता है कि देवगतिपञ्चकका बन्ध तो उसी जीवके सम्भव है जो अधिकसे अधिक दो मोड़ा लेकर उत्पन्न होता है, पर अन्य प्रकृतियों के बन्धके लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। ५३४. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार आयु, नरकगति, तिर्यञ्चगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि तीन युगल, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, आतप और उद्योतके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। पुरुपवेदके जघन्य अनुभागवन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य है । हास्य, रति और आहारकद्विकके जघन्य अनुभागवन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। मनुष्यगति, समचतुरस्त्रसंस्थान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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