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________________ कालपरूवणा ૨૯૫ ५३५. पुरिसेसु पंचणाणावरणादि याव पंचंतराइगा ति ज० एग० । अज. ज. अंतो०, उक० सागरोवमसदपुधत्तं । सादादिविदियदंडओ इत्थिवेदादितदियदंडओ इथिभंगो। पुरिस० ओघं । हस्स-रदि-आहारदुगं ओघं। मणुस०-वज्जरि०-मणुसाणु० ज० ज० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अज० ज० एग०, उक्क० तेत्तीसं० सा० । देवगदि-देवाणु० ज० अज० ओघं । पंचिं०-पर-उस्सा०-तस०४ ज० ज० एग०, उ० बेसम० । अज० ज० एग०, उ० तेवहिसागरोवमसदं। ओरालि०-ओरालि.अंगो० ज० ज० एग०, उ० बेसम० । अज० अणु०भंगो० । वेउव्वि०--वेउवि०अंगो० ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० ।[अज०] देवगदिभंगो। तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०-णिमि० rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrror प्रकृतियोंका नहीं, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य कहा है। भोगभूमिमें पर्याप्त मनुष्यिनियोंके देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका नियमसे बन्ध होता है और उत्तम भोगभूमिका उत्कृष्ट काल तीन पल्य है। इसमेंसे अपर्याप्त अवस्थाका काल कम कर देने पर कुछ कम तीन पल्य शेष रहता है, अतः इन चार प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। सम्यग्दृष्टि देवियों के पश्चन्द्रिय जाति आदि तीन प्रकृतियों का नियमसे बन्ध होता है, अत: इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य कहा है। देवीके पचपन पल्य काल तक तो औदारिकशरीर आदि का बन्ध होगा ही, आगे भी अन्तमुहूर्त काल तक वह नियमसे होता रहता है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ अधिक पचपन पल्य कहा है। तैजसशरीर आदि ध्रवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं और इनका निरन्तर बन्ध होता रहता है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्वप्रमाण कहा है। कर्मभूमिकी मनुष्यिनी आठ वर्षके बाद सम्यक्त्वका लाभ करके शेष पूर्वकोटि काल तक तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध कर सकती है, अतः इसके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। ५३५. पुरुषवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणसे लेकर पाँच अन्तराय तक प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। सातावेदनीय आदि दूसरे दण्डक और स्त्रीवेद आदि तीसरे दण्डकका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। पुरुषवेदका भङ्ग ओघके समान है। हास्य, रति और आहारकद्विकका भङ्ग ओषके समान है। मनुष्यगति, वर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। देवगति और देवगत्यानुपूर्वीके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका काल अोधके समान है । पश्चन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास और सचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एकसौ त्रेसठ सागर है। औदारिकशरीर और औदारिकाङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका भङ देवगतिके समान है। तेजसशरीर. कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतष्क, अगुरुलघु और निर्माण के जघन्य अनुभागवन्धका काल ओघके समान है। अजयन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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