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________________ २६० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे गिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुवं०४-तिरिक्खगदि३ ज० एग०। अज० अणुभंगो। सादादीणं ज० ज० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अज० ज० एग०, उक्क० अंतोमु० । ५३०. वेउव्वियमि० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दु०-ओरालि०तेजा-क०-पसत्यापसत्थव०४-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि०-तित्थ०-पंचंत० ज० एग० । अज० ज० उ० अंतो० । सादासाद०-मणुसग०-एइंदि०-छस्संठा०-छस्संघ०मणुसाणु०-दोविहा०-थावर-थिरादिछयुग०-उच्चा० ज० ज० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अज० अणुभंगो। इत्थि०-णवंस०-अरदि-सोग० ज० ज० एग०, उ० बेसम० । अज० अणुभंगो। पुरिस०-हस्स-रदि-तिरिक्ख०३-पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-आदाउज्जो०तस० ज० एग० । अज० ज० एग०, उ० अंतो० । है। अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क और तिर्यञ्चगतित्रिकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। सातावेदनीय आदिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-वैक्रियिकयोगमें सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। वह यहाँ भी प्रथम दण्डक और द्वितीय दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका बन जाता है, इसलिए वह अनुत्कृष्टके समान कहा है। मात्र द्वितीय दण्डककी प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल वैक्रियिककाययोगके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा घटित करना चाहिए । सातावेदनीय आदिका काल स्पष्ट ही है । ५३०. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय जाति, छह संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर, स्थिर आदि छह युगल और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। स्त्रीवेद. नपुंसकवेद, अरति और शोकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। पुरुषवेद, हास्य, रति, तिर्यञ्चगतित्रिक, पश्चद्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, पातप, उद्योत और त्रसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-वैक्रियिकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है और प्रथम दण्डकमें कही गई ज्ञानावरणादि प्रकृतियाँ वैक्रियिकमिश्रकायोगमें ध्रुवबन्धिनी हैं, अतः यहाँ इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। यहाँ जिनके तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध होता है, उनके वह ध्रुवबन्धिनी ही है, अतः उसे ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंके साथ परिगणित किया है। दूसरे और तीसरे दण्डकमें कही गई सब प्रकृतियाँ सप्रतिपक्ष हैं। उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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