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________________ कालपरूवणा २६१ ५३१. आहारका ० पंचणा०-- इदंसणा ० -- चदुसंज० - सत्तणोक० - देवर्गादिएगुणतीस उच्चा० - पंचत० ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अज० ज० एग०, उक्क० तो० । सादासाद० - देवायु० - थिरादितिष्णियुग० ज० ज० एग०, उक्क० चत्तारि - सम० । अज० ज० एग०, उक्क० तो ० । ५३२. आहारमि० पंचणा०छदंसणा०-- चदुसंज ० -- पुरिस०-भय-दु० - देवर्गादिएगुणतीस उच्चा० - पंचंत० ज० एग० । अज० ज० उ० अंतो० । सादासाद०-थिरादितिष्णियुग० आहारकायजोगिभंगो । चत्तारिणोक० -- देवाउ० ज० एग० । अज० ज० एग०, उ० तो ० । अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान बन जाता है, अतः इन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान कहा है । पुरुषवेद आदि सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं । इसलिए इनके भी अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । मात्र तप और उद्योत प्रतिपक्षरूप | पर इनका जघन्य बन्धकाल एक समय और उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त होनेसे उनके भी अजघन्य अनुभागबन्धका उक्त काल कहा है । ५३१. आहारककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, सात नोकषाय, देवगति उनतीस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, देवायु और स्थिर आदि तीन युगल के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ -- यहाँ आहारककाययोगके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा तथा प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य बन्धकी अपेक्षा दोनों प्रकारसे सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है, इसलिए उक्त प्रमाण कहा है। ५३२. आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति उनतीस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सातावेदनीय, असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलका भङ्ग आहारक काययोगी जीवोंके समान है। चार नोकषाय और देवायुके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल है। विशेषार्थ - आहारक काययोगी जीवोंके ज्ञानावरण आदि प्रथम दण्डक व चार नोकषायके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल दो समय बतलाया है और आहारकमिश्रमें एक समय बतलाया है। इसका कारण यह है कि इनका जघन्य बन्ध सर्वविशुद्ध या सर्वसंक्लेश परिणामोंसे होता है जो आहारकमिश्र काययोगके अन्तिम समयमें ही होता है, जैसा कि वैक्रियिकमिश्र में भी बतलाया है। अर्थात् वैकियिककाययोगमें दो समय और वैक्रियिकमिश्र में एक समय इसी अपेक्षा बतलाया है । देव आयुका जघन्य अनुभागवन्ध भी आहारकमिश्रकाययोग के अन्तिम समयमें ही होता है । इसी १. श्रा० प्रतौ श्रज० उ० तो ० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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