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________________ महाबंध अणुभागबंधाहियारे तिरिक्खगदितिगं ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अज० ज० एग०, उक्क० तिण्णिवास सह० देमू० | ओरालिय० - तेजा ० कम्मइगादि० णत्र णिमि० ज० ज० एग०, उ० बेसम० । अज० ज० एग०, उक्क० बावीसं वास सह० देसू० । २८८ ५२८. ओरालियमि० पंचणा० णवदंसणा०-मिच्छत्त० - सोलसक० - [ पुरिस०हस्स-रदि- ] भय-दु० -देवगढ़पंचग० ओरालि० -- तेजा ० क ० पसत्थाप सत्थव ४ - अगु० - उप० - णिमि० - पंचंत० ज० एग० । अज० ज० उक्क० अंतो० । सादासाद० - दोआयु० तथा अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है । तिर्यञ्चगतित्रिकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन हजार वर्ष है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर आदि नौ निर्माणपर्यन्तके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । विशेषार्थ -- औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है और प्रथम दण्डकमें कही गईं ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं। इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष कहा है । अन्तिम दण्डकमें कही गई श्रदारिकशरीर आदि नौ और निर्माण ये ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं । यद्यपि इनमें सप्रतिपक्ष प्रकृति औदारिकशरीरका भी समावेश है, पर एकेन्द्रिय जीवके यह ध्रुवबन्धिनी ही है, इसलिए इनके भी अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्टकाल कुछ कम बाईस हजार वर्ष कहा है। यहाँ नौ प्रकृतियोंमेंसे औदारिकशरीर, तैजसशरीर, और कार्मणशरीर व निर्माण ये चार प्रकृतियाँ तो कही ही हैं। शेष पाँच ये हैं--प्रशस्त वर्णचतुष्क और अगुरुलघु । सातादिक सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका काल ओघके समान यहाँ भी बन जाता है, अतः वह ओघ के समान कहा है । स्त्रीवेद आदि तीसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंमेंसे स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, अरति और शोक ये तो सप्रतिपक्ष ही हैं । यद्यपि एकेन्द्रियके औदारिकाङ्गोपाङ्गका ही बम्ध होता है, पर त्रससंयुक्तप्रकृतियोंके बन्धके समय ही इसका बन्ध होता है, इसलिए औदारिककाययोगमें यह कहीं सप्रतिपक्ष है और कहीं अध्रुवबन्धिनी है । परघात, उच्छ्वास, आतप और उद्योत इनका निरन्तर बन्ध अन्तर्मुहूर्त कालतक होता है । अब रहीं पञ्च ेन्द्रियजाति, वैक्रियिकद्विक और त्रसचतुष्क सो यद्यपि सम्यग्दृष्टिके इनका निरन्तर बन्ध होता है, पर वहाँ दारिकाययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं है, इसलिये इन स्त्रीवेद आदिके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अनुत्कृष्टके समान अन्तर्मुहूर्तं कहा है । तिर्यञ्चगतित्रिकका निरन्तर बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके ही होता है और औदारिककाययोग के रहते हुए वायुकायिक जीवोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन हजार वर्ष है, इसलिए यहाँ इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन हजार वर्षं कहा है । ५२८. श्रदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति पश्चक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो आयु, मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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