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________________ कालपरूवणा २८७ ५२७. ओरालियका. पंचणा०--णवदंसणा०-मिच्छ०--सोलसक०--भय-दु०अप्पसत्थव०४-उप०-पंचंत० ज० एग० । अज० ज० एग०, उक्क० बावीसं वाससहस्साणि देसू० । सादादीणं ओपं । इत्थि०-णवंस०-अरदि-सोग-पंचिंदि०-ओरालि. [ अंगो०- ] वेउवि०-वेउब्बि० अंगो०-पर०--उस्सा०-आदावुज्जो०--तस०४ मणजोगिभंगो । पुरिस०-हस्स-रदि--आहारदुग०-तित्थ० ज० एग० । अज० अणुक्कस्सभंगो० । अनुभागबन्ध ऐसे ही परिणामोंमें होता है, अतः उनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय कहा है। जिन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध सर्वविशुद्धपरिणामोंसे या तत्प्रायोग्य विशुद्धपरिणामोंसे, उत्कृष्ट संक्लिष्टपरिणामोंसे या तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामोंसे होता है, उनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय होता है। यथा-यहाँ तीसरे दण्डकमें कही गई स्त्रीवेद आदि प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध ऐसे ही परिणामोंसे होता है, अतः उनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। इन सिद्धान्तोंको ध्यानमें रखकर आगे कालका विचार किया जा सकता है, अतः हम केवल अजघन्य अनुभागबन्धके कालका ही विचार करेंगे। उसमें भी अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल कुछ अपवादोंको छोड़कर प्रायः सर्वत्र एक समय ही है, अतः उसका भी बार-बार उल्लेख नहीं करेंगे। जहाँ कुछ विशेषता होगी,उसका वहाँ अवश्य ही निर्देश कर देंगे। काययोगका उत्कृष्ट काल अनन्त है। ध्रुवबन्धिनी होनेसे इतने कालतक प्रथम इण्डकमें कही गई ज्ञानावरणादिका निरन्तर बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अनन्तप्रमाण कहा है। दूसरे दण्डकमें कही गई सातावेदनीय आदि सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अनुत्कृष्टके समान अन्तमुहूर्त कहा है। तीसरे दण्डकमें कही गई स्त्रीवेद आदि कुछ सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं और परघात आदि चार सप्रतिपक्ष न होकर भी उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त काल तक बन्धवाली हैं, इसलिए इनके भी अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। चतुर्थ आदि गुणस्थानोंमें पुरुषवेदका निरन्तर बन्ध होता है, पर वहाँ काययोगका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। यही बात जिनके तीर्थङ्करप्रकृतिका बन्ध होता है,उनके विषयमें भी लागू होती है। शेष हास्य, रति और आहारकद्विकका बन्ध अन्तमुहूर्तसे अधिक काल तक नहीं होता यह स्पष्ट ही है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। काययोगमें तिर्यञ्चगतित्रिकका निरन्तर बन्ध श्रोधके समान असंख्यात लोक काल तक होना सम्भव है, क्योंकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंकी कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है। इनके काययोग रहता ही है और तिर्यश्चगतित्रिककी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध न होकर केवल इन्हींका बन्ध होता है, इसलिए यहाँ इनका भङ्ग ओघके समान कहा है। ५२७. औदारिककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजवन्य अनुभागवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। सातादिकका भङ्ग ओघके समान है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वैकियिकशरीर, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत और त्रसचतुष्कका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। पुरुषवेद, हास्य, रति, आहारकद्विक और तीर्थकरके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है १. ता० प्रा० प्रत्योः पंचिदि० ओरालि ओरालि• वेउवि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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