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________________ कालपरूवणा २८३ वजरि०-मणुसाणु०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदें--उच्चा० ज० ज० एग०, उ०चत्तारिसम० । अज० अणुक्क भंगो। थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबं०४ ज० एग० । अज० अणुभंगो। णवरि मिच्छ० अज० ज० अंतो'। छण्णोक०-आदाउज्जो० ज० अज० उक्कस्सभंगो । एवं सव्वदेवाणं जहण्णं सामित्तं णादण अप्पणो हिदी णादव्वा। ५२२. एइंदिएसु धुविगाणं तिरिक्खगदितिगस्स च ज० ज० एग०, उक्क० वेसम० । अज• अणुकस्सभंगी। सत्तणोक०-ओरालि.अंगो०--पर-उस्सा०-आदाअन्तमुहूर्त है । मनुष्यगति, समचतुरस्त्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचारके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। छह नोकषाय, आतप और उद्योतके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका काल उत्कृष्टके समान है । इसी प्रकार सब देवोंके जघन्य स्वमित्वको जानकर अपनी स्थिति जाननी चाहिए। विशेषार्थ--सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें प्रथम दण्डकमें कही गई ज्ञानावरणादि सब प्रकृतियाँ और तीसरे दण्डकमें कहीं गई मनुष्यगति आदि सब प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। मनुष्यगति आदिके अजघन्य अनुभागबन्धके कालका भङ्ग यद्यपि अनुत्कृष्टके समान कहा है,पर उसका यही अभिप्राय है। दूसरे दण्डकमें कही गई सातावेदनीय आदि प्रकृतियाँ अध्र व नी हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। यद्यपि इनमें दो आयु.भी सम्मिलित हैं,पर इससे अजघन्य अनुभागबन्धके जघन्य काल एक समयमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। खुलासा पहले कर आये हैं। स्त्यानगृद्धि तीन आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर पहले घटित करके बतला आये हैं। अजघन्य अनुभागबन्धका यह काल इसी प्रकार प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान कहा है। मात्र मिथ्यात्वके अजघन्यबन्धके जघन्य कालमें विशेषता है। कारण कि मिथ्यात्वका जघन्य काल अन्त इतने काल तक मिथ्यात्वका नियमसे बन्ध होता है, इसलिए मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है। छह नोकषाय, आतप और उद्योत ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं। उत्कृष्ट अनुभागबन्धके समय इनका जो काल कहा है,वह यहाँ भी बन जाता है, इसलिये उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ भवनवासी आदि देवोंमें अलग-अलग कालका विचार नहीं किया है सो जहाँ जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है उसका तथा अपनी-अपनी स्थिति और स्वामित्वका विचार कर वह घटित कर लेना चाहिये। शेष कथन स्पष्ट ही है। ५२२. एकेन्द्रियों में बन्धवाली प्रक्रतियोंके और तियञ्चगतित्रिकके जघन्य अनुभागबन्ध का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। सात नोकषाय, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास, आतप और १. ता० प्रतौ अणंताणुबं०४ ज० ए० ज० ज. अंतो इति पाठः । बत्यकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jaintelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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