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________________ महाबँधे अणुभागबंधाहियारे ५२०. मणुस ० ३ खविगाणं ज० ओघं । अज० सेसाणं वज्ज पंचिंदि० तिरि०भंगो | अज० सव्वाणं अणुकरसभंगी । तित्थय० ज० अज० उक्कस्सभंगो । २८२ ५२१. देवेसु पंचणा ० -- छदंसणा ० - बारसक०-- पुरिस०--भय-- दु० - पंचिंदि० ओरालि० - तेजा - क ० -ओरालि० अंगो ०--पसत्थाप सत्थवण्ण४ -- अगु०४-तस०४ - णिमि०तित्थ० - पंचंत० ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अज० ज० एग०, उक्क० तेतीसं सा० । सादासाद० - दो आयु ० - तिरिक्ख० - एइंदि० - पंचसंठा० - पंचसंघ० - तिरिक्खाणु० - अप्पसत्थवि०- थावर-थिरथिर- सुभामुभ-- दूभम- दुस्सर - अणादे० - जस ० - अजस०-णीचा० ज० ज० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अज० ज० एग०, उ० अंतो० । मणुस ० - समचदु० O प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है । विशेषार्थ --- यहाँ जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें विकलत्रयों को छोड़कर सबकी कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। मात्र पचेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकों में तिर्यगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे होता है, किन्तु एकेन्द्रियों में सर्वविशुद्ध परिणामों से होता है| इसलिए इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में तिर्यञ्चगतित्रिकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। विकलत्रयों की कार्यस्थिति अधिक है, इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान कहा है । शेष कथन सुगम है। ५२०. मनुष्यत्रिमें क्षपक प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका काल ओघके समान है । अजघन्य अनुभागबन्धका काल और शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका काल पचेन्द्रिय तिर्यों के समान है । तथा शेष सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका काल उत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ - ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा ये चार नोकषाय और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका क्षपकश्रेणि में जघन्य अनुभागबन्ध होता है और क्षपकश्रेणि मनुष्यत्रिक में होती है, अतः यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका काल ओघ के समान कहा है । यद्यपि पुरुषवेदका भी जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, पर इसके जघन्यानुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है। इसलिए यहाँ इसकी परिगणना नहीं की। शेष कथन स्पष्ट ही है । ५२१. देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो आयु, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यवगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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