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________________ कालपरूवणा ५१६. पंचि०तिरि०अप० पंचणा०-- णवदंसणा०-मिच्छ० -- सोलसक०--णवणोक० - ओरालि० -- तेजा ० क ० - ओरालि० अंगो० - पसत्यापसत्थवण्ण४ - अगु० - उप ०पर० - उस्सा० - आदाउज्जो० - णिमि०-पंचंत० ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० अज० ज० एग०, उक्क० तो ० | सेसाणं ज० ज० एग०, उक० चत्तारिसम० । अज० ज० एग०, उक० अंतो० । एवं सव्वअपज्जत्तगाणं मुहुमपज्जत्तापज्ज० - सव्वबादर०अपज्ज० - सव्वविगलिंदि० । णवरि एइंदिय- सुहुमाणं च पज्जत्त अप० बादर अपज्ज० तिरि०३ ज० ज० एग०, उक० बेसम० । विगलिंदिएसु धुविगाणं अज० अणुकरसभंगो | विकल बन जाता है, इसलिए यह काल ओघ स्त्रीवेदके समान कहा है । पुरुषवेद आदि चौथे दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का उत्तम भोगभूमिमें तिर्यञ्च सम्यग्दृष्टिके निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अजवन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल तीन पल्य कहा है। तिर्यनगतित्रिकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जो काल कह आये हैं, वही यहाँ इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका प्राप्त होता है, इसलिए यह उत्कृष्टके समान कहा है । देवगति आदि प्रकृतियोंका उत्तम भोगभूमिमें सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च के निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल तीन पल्य कहा है । तिर्यञ्चों में मनुष्यद्विकका बन्ध सासादनगुणस्थान तक होने से ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ बनी रहती हैं, इसलिए इनका भङ्ग सातावेदनीयके समान कहा है । तिर्यञ्चों में पञ्चन्द्रिय जाति आदि प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पंल्य घटित करके बतला आये हैं । इन प्रकृतियों के अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल इसी प्रकार वन जाता है, इसलिए यह अनुत्कृष्टके समान कहा है । यहाँ सामान्य तिर्यञ्चों में सब प्रकृतियोंका जो काल कहा है, वह पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रिकमें अविकल घटित हो जाता है । मात्र जिन प्रकृतियोंके काल में अन्तर है, उसका अलगसे निर्देश किया है । बात यह है कि इन तीन प्रकारके तिर्यञ्चों की उत्कृष्ट कार्यस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है, इसलिए इनमें ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण जानना चाहिए। तथा इनके तिर्यञ्चगतित्रिक सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हो जाती हैं, इसलिए इनका भङ्ग सातावेदनीयके समान कहा है। यहाँ श्रदारिकशरीर भी सप्रतिपक्ष प्रकृति है, इसलिए इसका भङ्ग स्त्रीवेद के समान कहा है । पुरुषवेद आदि और देवगति आदिका यहाँ सम्यग्दृष्टिके निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इन तीन मार्गणाओं में इन प्रकृतियोंका जैसा काल उत्कृष्ट प्ररूपणा के समय घटित करके बतला आये हैं, यथायोग्य वैसा बन जानेसे वह मूलमें कही गई विधि से कहा है । २८१ ५१६. पचन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकपाय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब सूक्ष्म और उनके पर्याप्त अपर्याप्त, सब बादर अपर्याप्त और सब विकलेन्द्रिय जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय और सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त और बादर अपर्याप्त जीवोंमें तिर्यगतित्रिकके जघन्य अनुभागवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । तथा विकलेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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