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________________ २८० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे उक्क० तिण्णिपलि. । तिरिक्व०३ उक्कस्सभंगो। देवगदि-समचदु०-देवाणु०-पसत्थ०सुभग-सुस्सर-आदें-उच्चा० ज० ज० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अज० ज० एग०, उ० तिण्णि पलि० । मणुसग०-मणुसाणु० सादभंगो । पंचिंदि०-पर-उस्सा०-तस०४ ज० एग०, उक्क० बेसम० । अज० अणुक्कस्सभंगो। एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३ । णवरि धुवियाणं अज० ज० एग०, उक्क० तिण्णि पलि० पुवकोडिपुध० । तिरिक्ख०३ सादभंगो। ओरालि. इत्थिभंगो । पुरिस०-वेउव्वि०-वेउव्वि०अंगो जहण्णुक्कस्सभंगो। अज० अणुभंगो । देवगदि-समचदु०-देवाणु०-पसत्थ०--सुभग-सुस्सर--आर्दै०-उच्चा० ज० ज० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अज० अणु० भंगो । भागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य है । तिर्यञ्चगतित्रिकका भंग उत्कृष्टके समान है । देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी का भङ्ग सातावेदनीयके समान है। पश्चोन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास और त्रसचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। तिर्यञ्चगतित्रिकका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । औदारिकशरीरका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। पुरुषवेद, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग के जघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग उत्कृष्टके समान है और अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है तथा अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ-अोघमें हम सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागवन्धके जघन्य और उत्कृष्ट कालका तथा अजघन्य अनुभागबन्धके जघन्य कालका खुलासा कर आये हैं। उन कारणोंको पुनः पुनः दुहराना ठीक नहीं है। अतः आगे इनके कालोंकी विशेप चर्चा नहीं करेंगे। यदि कहीं कोई विशेषता होगी तो उसपर अवश्य ही प्रकाश डालेंगे। अब रहा यहाँ अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल सो उसका खुलासा इस प्रकार है-तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका कायस्थिति कालतक निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अनन्त काल कहा है। यही बात स्त्यानगृद्धि आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके विषयमें भी जाननी चाहिए। मात्र मिथ्यात्व प्रकृतिका अजघन्य अनुभागबन्ध तिर्यश्चोंमें खुदाभवग्रहप्रमाणकाल तक भी सम्भव है, क्योंकि जो जीव अन्य पर्यायसे आकर और खुद्दाभवग्रहप्रमाण काल तक तिर्यश्च पर्याय में रहकर अन्य पर्यायमें चला जाता है,उसके इतने काल तक तिर्यश्च पर्यायमें मिथ्यात्वका अजघन्य अनुभागबन्ध देखा जाता है। इसलिए इसके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण कहा है। ओघसे स्त्रीवेदके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जो काल कहा है, वह यहाँ स्त्रीवेद आदि तीसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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