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________________ कालपरूवणा २७६ ५१८. तिरिक्खेसु पंचणा०-छदंसणा०-अहक०-भय-दुगुच्छ०-ओरालि०-तेजा०क०-पसत्थापसत्थवण्ण४-अगु०-उप०-णिमि० पंचंत० ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अज० ज० एग०, उ० अणंतका० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अहक० ज० एग०, अज० ज० एग०, मिच्छ० ज० खुद्दाभव०. उक्क० अणंतका० । सादादिदंडओ ओघं । इत्थि०--णवंस०--चदुणोक०--ओरालि०अंगो०--आदाउज्जो० ओघं इत्थिभंगो। पुरिस-वेउव्वि०--वेउव्वि०अंगो० ज० ज० एग०, उक्क० बेस । अज० ज० एग०, जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जो काल ओघसे कहा है ,वही यहाँ प्राप्त होता है, इसलिए यह ओघके समान कहा है। स्त्रीवेद आदि एक तो अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, दूसरे इनमें अप्रशस्त प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध तत्प्रायोग्य विशुद्धिसे और उद्योतका जघन्य अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशसे होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय तथा अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है । पुरुषवेद भी इसी प्रकारकी प्रकृति है पर इसका सम्यग्दृष्टिके निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इसके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। मनुष्यगति आदि प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय कहा है । तथा ये एक तो परिवर्तमान प्रकृतियाँ हैं, दूसरे इनका सम्यग्दृष्टिके निरन्तर बन्ध होता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका काल उत्कृष्टके समान है यह स्पष्ट ही है। सातवीं पृथिवीमें यह काल इसी प्रकार है। मात्र स्त्यानगृद्धि तीन आदि प्रकृतियों के काल में कुछ अन्तर है। बात यह है कि सातवीं पृथिवीमें एकमात्र मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही मरण होता है, इसलिए इसमें स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और तिर्यश्चगति के अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमहतं कहा है। तथा मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यग्मिथ्यात्वके अभिमुख हुए सम्यग्दृष्टि नारकीके होता है, इसलिए सातवें नरकमें इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा यहाँ सम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूते और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है । प्रारम्भकी छह पृथिवियोंमें मिथ्यात्व गुणस्थानमें मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका भी बन्ध होता है, इसलिए इनमें तिर्यञ्चगतित्रिक परावर्तमान प्रकृतियाँ हो जाती हैं, अतः यहाँ इनका काल सातावेदनीयके समान कहा है । शेष कथन सुगम है । ५१८. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, अाठ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्तवर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और आठ कषायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है, मिथ्यात्वका खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल सबका अनन्त काल है। सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग ओघके समान है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार नोकषाय, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप और उद्योतका भङ्ग अोघसे स्त्रीवेदके समान है। पुरुषवेद, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य अनु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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