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________________ २८४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे उज्जो० ज० अज० उक्कस्सभंगो। सेसाणं अपज्जत्तभंगो। णवरि सव्वत्थं अज० अप्पप्पणो अणुक्कस्सभंगो । एवं वादर० बादरपज्जत्तापज्जत्तगाणं च सुहुमाणं । ५२३. पंचिंदि०-तस०२ सव्वपगदीणं जह० ओघं । अज० सव्वाणं अप्पप्पणो अणुक्कस्सभंगो। णवरि अप्पसत्थाणं धुविगाणं अज० ज० अंतो०, उ० अणुभंगो। उद्योतके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग उत्कृष्ट अनुयोगद्वारके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है मिसर्वत्र अजघन्य अनुभागबन्धका काल अपने-अपने अनुत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्यात, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त और सूक्ष्म जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली अप्रशस्त प्रकृतियोंका सर्व विशुद्ध परिणामोंसे, ध्रुवबन्धवाली प्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे और तिर्यश्चगतित्रिकका सर्वविशुद्ध परिणामोंसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए यहाँ जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है, यह स्पष्ट ही है, क्योंकि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण बतलाया है, वही यहाँ भी प्राप्त होता है। सात नोकषाय और औदारिक आङ्गोपाङ्ग अध्रुवबन्धिनी और यथासम्भव सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं तथा परघात आदि चार अप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होकर भी अध्रवबन्धिनी हैं, इसलिए उत्कृष्ट अनुयोगद्वारमें इनका काल जो अपर्याप्तकों के समान बतलाया है, वैसा ही यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। तथा शेष प्रकृतियोंका काल भी अपर्याप्तकों के समान घटित कर लेना चाहिए। मात्र एकेन्द्रियोंके अवान्तर भेदोंमें काल कहते समय अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल जैसा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अलगअलग कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। ५२३. पञ्चन्दियद्रिक और त्रसद्रिक में सब प्रक्रतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। तथा सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका काल अपने-अपने अनुत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि अप्रशस्त ध्रुषबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपने-अपने अनुत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ--जघन्य स्वामित्वको देखनेसे विदित होता है कि इन चारों मार्गणाओंमें जघन्य स्वामित्व ओघके समान बन सकता है, इसलिए इनमें जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल ओघके समान प्राप्त होनेमें कोई बाधा नहीं आती, अतः उसका निर्देश ओषके समान किया है। अब रहा अजघन्य अनुभागबन्धका काल सो यहाँ अन्य सब प्रकृतियोंका तो वह अनुत्कृष्टके समान बन जाता है। मात्र ध्रवबन्धवाली अप्रशस्त प्रकृतियोंके काल में कुछ विशेषता है। बात यह है कि इन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागवन्ध, जिनका क्षपकश्रेणिमें बन्ध सम्भव है,उनका तो क्षपकश्रेणिमें अपनीअपनी व्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें होता है और जिनका क्षपकश्रेणिमें बन्ध सम्भव नहीं है, उनका यथास्वामित्व अपनी-अपनी व्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें होता है। इसलिए इनका अजघन्य अनुभागबन्ध अन्तर्मुहूर्त कालसे कम इन मार्गणाओंमें बन ही नहीं सकता। इसलिए यहाँ इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपने-अपने अनुत्कृष्टके समान कहा है। १. ता० श्रा. प्रत्योः सव्व इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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