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________________ ANANANAAAAAAAAAACAN कालपरूषणा २७१ अरदि-सोग-देवगदि४-आहार०दुग-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० उ०ए० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो०। हस्स-रदि-मणुसगदिपंच० उ० ज० ए०, उ० वेसम० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । ५१२. सासणे सादासाद०-इत्थि०-अरदि-सोग-वामण-खीलिय०-उज्जो०-अप्पसत्थ-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-दुस्सर-अणादें-जस०-अज० उ० ए० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । पुरिस०-हस्स-रदि-तिण्णिआयु०-चदुसंठा०-चदुसंघ० उ० ज० ए०, उ० बेस० ! अणु० ज० एग०, उ० अंतो० । सेसाणं उ० ए०। अणु० ज० ए०, उ० छावलियाओ। एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, अरति शोक, देवगतिचतुष्क, आहारकद्विक, स्थिर. अस्थिर. शभ. अशभः यश:कीर्ति और अयश कीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । हास्य, रति और मनुष्यगतिपश्चकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । विशेषार्थ--उपशमसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होनेसे सव प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है यह स्पष्ट ही है। यहाँ विचार केवल अनभागवन्धके कालका करना है । पाँच ज्ञानावरणादि अप्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए जीवके होता है तथा क्षपक प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अपनीअपनी बन्धव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इन सबके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। मात्र मनुष्यगतिपञ्चकका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वविशुद्ध देव और नारकीके तथा हास्य और रतिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तत्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त चारों गतिके जीवके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । शेष कथन सुगम है। ५१२. सासादनसम्यक्त्वमें सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, वामनसंस्थान, कीलकसंहनन, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, टःस्वर, अनादेय, यश:कीर्ति और अयशःकीतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । पुरुषवेद, हास्य, रति, तीन आयु, चार संस्थान और चार संहननके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूते है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह आवली है। विशेपार्थ-यहाँ प्रथम दण्डकमें जो प्रकृतियाँ गिनाई है, उनमेंसे कुछका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चारों गतिके सर्वसंक्लिष्ट जीवके और कुछका चारों गतिके सर्वविशुद्ध जीवके होता है। यतः यह एक समय तक ही होता है,अत: इनके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । इनके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है; छह आवलि नहीं ता. प्रतौ तिणि आयु० चदुसंघ. इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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