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________________ महाधे अणुभागबंधाहियारे ५१३. सम्मामि० सादासाद० -- अरदि-सो० - थिराथिर -- सुभासुभ-ज० - अजस० उ० ए० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । हस्स-रदि० ओघं । सेसाणं उ० ए० । अणु० ज० उ० अंतो० । मिच्छादिट्ठी • मदि० भंगो | सण्णी० पंचिदियपज्जतभंगो । २७२ ५१४. असण्णी पंचणा ०-णवदंसणा०-मिच्छत्त- सोलसक०-भय-दु०-ओरालि०तेजा ० क ० - पसत्थापसत्थ०४ - अगु० - उप० णिमि० पंचंत० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० अनंतकाल० | तिरिक्खगदितिगं ओघं । सेसाणं उ० ज० ए०, उ० बेस०| सो इसका यह कारण प्रतीत होता है कि ये सब परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः छह आवलि कालके भीतर भी इनके बन्धका परिवर्तन सम्भव है, अतः वह छह आवलि काल द्वारान बतला कर अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा व्यक्त किया है । किन्तु पुरुषवेद आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामोंसे होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण पहले कह ही आये हैं। शेष जो पाँच ज्ञानावरणादि प्रकृतियाँ हैं, उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वसंक्लेशयुक्त जीवके होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । तथा वे ध्रुवबन्धिनी हैं तथा सासादनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलि है, अतः उनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलि कहा है । ५१३. सम्यग्मिथ्यात्वमें सातावेदनीय, असातावेदनीय, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । हास्य और रतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल के समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मिध्यादृष्टि जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भंग है । संज्ञी जीवों में पञ्चन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । विशेषार्थ --- सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए तो यहाँ सब प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल तथा ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । यद्यपि वैक्रियिकषट्क और औदारिक चतुष्क इनका भी सम्यग्मिध्यादृष्टिके बन्ध होता है, पर यहाँ वे अधिकारीभेदसे बँधने के कारण परावर्तमान नहीं हैं । अब रहा सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके जघन्य कालका विचार सो हास्य और रतिको छोड़कर किसीका मिध्यात्व के अभिमुख होने पर और किसीका सम्यक्त्वके अभिमुख होने पर बन्ध होता है, अतः इन सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है । हास्य और रतिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामों से होता है, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघ के समान बन जानेसे वह ओघ के समान कहा है। शेष कथन सुगम है । ५१४. असंज्ञी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण; नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वरचितुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है । तिर्यञ्चगति त्रिकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघ के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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