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________________ महाणुभागबंधाहियारे ५१०. वेदगे पंचणा० - छदंसणा ० चदुसंज० - पुरिस ० ० भय० दु०- पंचिंदि० -तेजा०क०-पसत्थापसत्थ०४ - अगु०४ - पसत्थवि० - तस४ - सुभग- सुस्सर-आदे० -- णिमि०उच्चा०-पंचंत० उ० एग० ! अणु० ज० अंतो०, उक० छावद्वि० । सेसं आभिणि० भंगो । raft देवदि०४ अणु उक्क० तिष्णि पलि० देसू० । ५११. उवसम० पंचणा०छदंसणा ० -- बारसक० -- पुरिस०--भय-दु० - पंचिंदि०तेजा ० क० समचदु० - पसत्यापसत्थ०४ - अगु०४ - पसत्थवि० तस४ - सुभग - सुस्सरआदे० - णिमि० - तित्थ ०० उच्चा० पंचंत० उ० ए० । अणु० ज० उ० अंतो० । सादासाद० २७० विशेषार्थ - क्षायिक सम्यक्त्वमें ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका अपनीअपनी बन्धव्युच्छिति होने तक निरन्तर बन्ध सम्भव है और यह काल उत्कृष्टरूपसे साधिक तेतीस सागर है, अतः इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है। मनुष्यगतिपञ्चकका सर्वार्थसिद्धि में निरन्तर बन्ध होता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि उपशमश्रेणिसे उतरकर और अन्तर्मुहूर्त काल तक पञ्चेन्द्रिय जाति आदि प्रकृतियों का बन्ध करके पुनः उनकी बन्धव्युच्छित्ति करता है, उसके इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है । इनका निरन्तर बन्ध साधिक तेतीस सागर काल तक सम्भव है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है । - ५१०. वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संचलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, गुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट भागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल छियासठ सागर है। शेष भङ्ग श्राभिनिवोधिकज्ञानी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगति चतुष्क के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कुष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। I विशेषार्थ - वेदकसम्यक्त्वमें प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरणादि अप्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिध्यात्व के अभिमुख हुए जीवके एक समय के लिए होता है तथा पञ्चेन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका सर्वविशुद्ध अप्रमत्तसंयतके एक समय के लिए होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । तथा वेदकसम्यक जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट काल छियासठ सागर है, इसलिए इनके अनु त्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल छियासठ सागर कहा है। देवगति चतुष्कका वेद सम्यक्त्वमें अधिक काल तक बन्ध उत्तम भोगभूमिमें ही सम्भव है और वहाँ पर वेदकं सम्यक्त्व कुछ कम तीन पल्य तक ही पाया जाता है, इसलिए यहाँ देवगति चतुष्क के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। शेष कथन सुगम है । ५११. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कपाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, देय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल १. था० प्रतौ पुरिस० पंचिंदि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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