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________________ कालपरूवणा ५०७. सुक्काए पंचणाणावरणादिसम्मादिद्विपगदीओ पुरिस० - अप्पसत्थ०४उप० पंचंत० उ० ज० एग०, उ० वेसम० । अणु० ज० एग०, उ० तेत्तीस सा० सादि० । थीर्णागिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबं४ उ० ज० एग०, उ० बेसम० । अणु० ज० एग०, उ० ऍक्कत्तीस ० सादि० । सादादिदंडओ ओघं । असादा० छण्णोक० --दो आयु ०-पंचसंठा०-पंच संघ० - अप्पसत्थवि ० -अथिरादिछ०-णीचा ० ० उ० ज० एग०, उ० बेसम० । अणु ० ज० एग०, उ० अंतो० । मणुसगदिपंचग० उक्क० ओघं । अणु० ज० एग०, उ० तैतीसं सा० । देवदि०४ सादभंगो। पंचिदिय-तेजा ० क ० - पसत्थवण्ण०४ - अगु०३-तस०४णिमि०-तित्थ० उ० एग० । अणु० ज० अंतो०, उक्क० तैंतीसं० सादि० । समचदु०पसत्थ० -- सुभग-- सुस्सर - आदेंο०-उच्चा० उक्क० एग० । अणु० ज० एग०, उक्क ० तेत्तीस ० सादि० । जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यही बात तैजसशरीर आदि प्रकृतियों के विषय में भी जान लेनी चाहिए । पद्मलेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक अठारह सागर है, इसलिए जिन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल पीत लेश्या में साधिक दो सागर कहा है, उनका यहाँ साधिक अठारह सागर काल कहना चाहिए। तथा पद्म लेश्यामें एकेन्द्रिय जाति, श्रातप और स्थावरका बन्ध न होनेसे पचन्द्रिय जाति और बस ये दो ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हो जाती हैं, अतः इनका काल तैजसशरीर आदि प्रकृतियोंके समान घटित कर लेना चाहिए, क्योंकि ये प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, इसलिए उनके समान यहाँ काल प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती। शेष कथन सुगम है । २६७ ५०७. शुक्ललेश्या में पाँच ज्ञानावरणादि सम्यग्दृष्टिके बँधनेवाली ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ, पुरुषवेद, अप्रशस्त वर्णचार, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व और अनुबन्धी चारके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है । सातादि दण्डका भङ्ग ओघके समान है । असातावेदनीय, छह नोकपाय, दो आयु, पाँच संस्थान, पाँच - संहनन, प्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल के समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। देवगतिचतुष्कका भङ्ग सातावेदनीय के समान है । पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क, निर्माण और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तं है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, स्वर, आदेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । विशेषार्थ - प्रथम दण्डकमें ये प्रकृतियाँ हैं - पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तराय । ये प्रकृतियाँ सम्यग्दृष्टि भी बँधती रहती हैं, इसलिए शुक्ललेश्याके उत्कृष्ट काल तक इनका बन्ध सम्भव होनेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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