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________________ २६८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५०८. भवसि० ओघं । अब्भवसि० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०भय-दु०-ओरालि० तेजा-क०-पसत्थापसत्थवण्ण४-अगु०-उप०--णिमि०--पंचंत० उ० ज० एग०, उ० वेसम० । अणु० ज० एग०, उक्क० अणंतका । सादासाद०-सत्तणोक०-चदुआयु०-णिरयगदि-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ०-णिरयाणु०-आदाउज्जो०--अप्पसत्थ०थावरादि४-थिराथिर-सुभासुभ-भग-दुस्सर-अणादें-जस०-अजस० उ० ज० एग०, उ० बेसम० । अणु० ज० एग०, उक्क० अंतो० । तिरिक्खगदितिगं ओघं । मणुस०-मणुसाणु० उक्क० ओघं । अणु० मदिभंगो। एवं वज्जरि०। देवगदि०४'-समचदु०-पसत्थ०-सुभगसुस्सर--आदेंज--उच्चा० उ० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अणु० ज० एग०, उ० इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। स्त्यानगृद्धि तीन आदि आठ प्रकृतियोंका बन्ध अन्तिम ग्रैवेयक तक ही सम्भव है,इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर कहा है। सातादण्डक और असाता दण्डकका विचार सुगम है। मनुष्यगतिपञ्चकका सर्वार्थसिद्धिमें निरन्तर बन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। कोई जीव एक समय तक उपशमश्रेणिमें देवगतिचतुष्कका बन्ध कर मर कर देव हो जाय तो उसके इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय बन जाता है, इसलिए यहाँ देवगतिचतुष्कका भङ्ग सातावेदनीयके समान कहा है। पञ्चन्द्रियजाति आदि और समचतुरस्र संस्थान आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय स्पष्ट ही है। शुक्ललेश्याका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है और यहाँ पञ्चन्द्रियजाति आदि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । किन्तु समचतुरस्र आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक साधिक तेतीस सागर तक सम्भव होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ५०८. भव्य मार्गणामें ओघके समान भङ्ग है। अभव्य मार्गणामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, चार आयु, नरकगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावरादि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यश-कीर्ति और अयश कीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । तिर्यञ्चगतित्रिकका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। इसी प्रकार वज्रर्षभनाराचसंहननका काल जानना चाहिए। देवगतिचतुष्क, समचतुरस्त्रसंस्थान. प्रशस्त विहायोगति. सुभग. सुस्वर, अ और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय १. ता० प्रा० प्रत्योःएवं सवाणि देवगदि०४ इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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