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________________ २६६ महाबँधे अणुभागबंधाहियारे ज० एग०, 0 उ० बेसम० । अणु० ज० एग०, उ० बेसाग० सादि० । सादा० - देवर्गादिवेडव्वि० - आहार० - दो अंगो०- देवाणु ० - थिर-सुभ-जस० उक्क० एग० । अणु०ज० एग०, णवरि देवदि०४ तो ० ० तो ० | असादा० छण्णोक० - तिण्णिआयु०-तिरिक्खग०- एइंदि०पंचसंठा०-- पंच संघ० - तिरिक्खाणु० - आदाउज्जो ० ०-- अप्पसत्थ० -- थावर० -- अथिरादिछ०णीचा० उ० ज० एग०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० | पंचिंदि०-समचदु० - [ पर०-उस्सा०- ] पसत्थ० -तस० - सुभग- सुस्सर - आदेο- उच्चा० उ० एग० । अणु० ज० एग०, उक्क० बेसाग० सादि० । तेजा ० क ० - पसत्थवण्ण०४ - अगु० - बादरपज्जत- पत्ते ० - णिमि० - तित्थ० उक्क० एग० । अणु० ज० अंतो०, उ० बेसाग० सादि० । एवं पम्माए वि । णवरि एइंदि० - आदाव - थावरं वज्ज० | पंचिंदि० -तस० धुवं कादव्वं । 1 1 वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो सागर है । सातावेदनीय, देवगति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, स्थिर, शुभ और यशःकीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है । किन्तु इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्क के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । असातावेदनीय, छह नोकषाय, तीन आयु, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो सागर है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो सागर है। इसी प्रकार पद्मलेश्या में भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसमें एकेन्द्रियजाति आतप और स्थावरको छोड़कर काल कहना चाहिए। तथा पञ्च ेन्द्रियजाति और को ध्रुव कहना चाहिए । विशेषार्थ - पीतलेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक दो सागर होनेसे यहाँ ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डक में कही गई प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक दो सागर कहा है । अन्य जिन प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल इतना कहा है, वह भी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। साता दण्डक और असाता दण्डककी सव प्रकृतियाँ परावर्तमान हैं, अतः उनके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । सातावेदनीय आदि जितनी प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, उनका सर्वविशुद्ध अप्रमत्त संयतके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है। अतः उन सबके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । पीत लेश्या के काल में मनुष्य और तिर्यञ्चके नियमसे देवगति चतुष्कका बन्ध होता है और इनके पीतलेश्यका का काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहाँ देवगतिचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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