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________________ कालपरूवणा २६५ मुस्सर-आदेंज ०-उच्चा० उ० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अणु० ज० एग०, उक्क० तेत्तीस सत्तारस [ सत्त ] साग० देसू० । उज्जोवं ओघं । तित्थय. उ० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अणु० ज० एग०, उक्क० अंतो० । एवं णील०। काऊणं तित्थय० तदियपुढविभंगो । णील० काउ० तिरिक्ख०३-उज्जो० सादावेदणीयभंगो। ५०६. तेउ० पंचणा०-णवदंस०--मिच्छत्त-सोलसक०-पुरिस०-भय-दु०-मणुसगदि-ओरालि० - ओरालि०अंगों'०-वज्जरि० - अप्पसत्थ०४-मणुसाणु०-उप०-पंचंत उ० मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे कुछ कम तेतीस सागर, कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर है। उद्योतका भङ्ग ओघके समान है। तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल नीललेश्या में जानना चाहिए। तथा कापोत लेश्यामें तीसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। तथा नील और कापोत लेश्यामें तिर्यश्चगतित्रिक और उद्योतका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। विशेषार्थ-ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का निरन्तर अनुभागबन्ध कृष्णादि तीन लेश्याओंमें उनके उत्कृष्ट काल तक सम्भव होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । पर पुरुषवेद आदि प्रकृतियोंका निरन्तर वन्ध इन लेश्याओंमें सम्यग्दृष्टिके ही सम्भव है, अतः इन प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कृष्ण लेश्यामें कुछ कम तेतीस सागर, नील लेश्यामें कुछ कम सत्रह सागर और कापोत लेश्यामें कुछ कम सात सागर कहा है। सातावेदनीय आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः तीनों लेश्याओंमें इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है । कृष्ण और नील लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध मनुष्योंके ही होता है और इनके इन लेश्याओंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है, इसलिए तो इन दोनों लेश्याओंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूते कहा है और कापोत लेश्यामें ती प्रकृतिका बन्ध तीसरे नरकतक साधिक तीन सागरकी आयुवाले नारकियोंके भी सम्भव है, इसलिए कापोत लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृति के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल तीसरी पृथिवीके समान कहा है । सातवें नरकमें मिथ्यादृष्टिके तिर्यञ्चगतित्रिकका निरन्तर वन्ध होता है, इसलिए कृष्णलेश्यामें तो इनके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर बन जाता है,पर नील और कापोत लेश्यामें इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध का उत्कृष्ट काल साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर नहीं बनता। किन्तु प्रथम दण्डकमें इनका यह काल कह आये हैं, अतः उसका वारण करने के लिए यहाँ पर इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल सातावेदनीयके समान कहा है । इसी प्रकार उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ओघके समान कृष्ण लेश्याम ही बनता है। किन्तु यहाँ पहले तीनों लेश्याओंमें इसका काल अोधके समान कह आये हैं जो नील और कापोत लेश्यामें नहीं बनता, अतः इन दोनों लेश्याओंमें उसके कालका अलगसे निर्देश किया है। ५०६. पीतलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, मोलह कपाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, अप्रशस्त १. ता. श्रा. प्रत्योः पोरालि तेजा. क. पोरालि. अंगो० इति पाठः । ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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