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________________ कालपरूवणा २५६ ओरालि० उ० एग० । अणु० ज० एग०, उक्क० अणंतका० । तेजा०-क०-पसत्यवण्ण०४--अगु०-णिमि० उक्क० अणु० ओघं। __५००. विभंगे पंचणा०--णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-तिरिक्वग०अप्पसत्थवण्ण४-तिरिक्खाणु०-उप०--णीचा०--पंचंत० उ० ज० एग०, उक्क० बेसम०। एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। औदारिक शरीरके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अोधके समान है। विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरणादिके अनुभागबन्धका काल दूसरे दण्डकमें कही गई सातावेदनीय आदिके अनुभागबन्धका काल और तिर्यश्चगतित्रिके अनुभागबन्धका काल जो अोघमें कहा है,वह यहाँ अविकल बन जाता है, इसलिए यह ओषके समान कहा है। असातावेदनीय और सात नोकषाय आदि सब परिवर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। उद्योत और वज्रर्षभनाराच संहननका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए क्रमसे नारकी और देव-नारकीके एक समयके लिए होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। इन दोनों प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल असातावेदनीय आदिके समान है, यह स्पष्ट ही है; क्योंकि ये परिवर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बन जाता है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। इन दोनों प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध अन्तिम प्रैवेयकमें अधिक समय तक उपलब्ध होता है। तथा नौवें अवयकमें उत्पन्न होनेके पूर्व अन्तमुहूर्त काल तक इनका बन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल सधिक इकतीस सागर कहा है। देवगतिचतुष्क आदिका भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। निरन्तर अधिक समय तक अनुभागबन्ध उत्तम भोगभूमिमें पर्याप्त जीवके होता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। पश्चन्द्रिय जाति आदि प्रकृतियोंका भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। इनका अधिक काल तक अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सातवें नरकमें सम्भव है और वहाँ उत्पन्न होनेके पूर्व अन्तमुहूर्त काल तक भी इनका बन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। औदारिकशरीरका भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इसके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इसका निरन्तर बन्ध एकेन्द्रियके अनन्त काल तक होता रहता है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अनन्त काल कहा है। तेजसशरीर आदि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं। ओघसे इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जो काल कहा है, वह मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानीके सम्भव है, इसलिए यह ओघके समान कहा है। ५००. विभङ्गज्ञानमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपचात, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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