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________________ २६. महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अणु० ज० एग०, उक्क० तेतीसं० देसू०। सादा०-देवगदिष्ट-समचदु०-पसत्य-उज्जो०थिरादिछ०-उच्चा० उक्क० एग० । अणु० ज० एग०, उक्क० अंतो० । मणुसगदि०मणुसाणु० उ० एग०। अणु० ज० एग०, उक्क. ऍकत्तीसं० देसू० । पंचिंदि०. ओरालि०--तेजा०--क०--ओरालि० अंगो०--पसत्थव०४-अगु०३-तस४-णिमि० उ० एग० । अणु० ज० एग०, उक्क० तेतीसं० देस० । सेसाणं असादादीणं उ० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अणु० ज० एग०, उक्क० अंतो० । ५०१. आभि०-सुद०-ओधि० पंचणा०-छदंसणा०-चदुसंज०-पुरिस०-भय-दु०पंचिंदि०-तेजा-०-क.--समचदु०--पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-पसत्थवि०-तस४-सुभग अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। सातावेदनीय, देवगतिचतुष्क, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, उद्योत, स्थिरादि छह और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । मनुष्यगति और मनुष्यत्यानुपूर्वी के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम इकतीस सागर है। पञ्चन्द्रियजाति औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बस चतुष्क और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । शेष असातादि प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-विभङ्गज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर होनेसे यहाँ पाँच ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियाँ परिवर्तमान हैं और इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यकत्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। मनुष्यगतिद्विक और पञ्चोन्द्रिय जाति आदि प्रकृतियों का भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए तो इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। किन्तु मनुष्यगतिद्विकका अधिक समय तक निरन्तर बन्ध नौवें अवेयकमें सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम इकतीस सागर कहा है और पञ्चन्द्रिय जाति आदिका अधिक समय तक निरन्तर बन्ध सातवीं पृथिवीमें होता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। शेष असातादि परावर्तमान प्रकृतियाँ है इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। ५०१. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पश्चन्द्रियजाति, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, १. मा. प्रतौ चदुदंसणा० इति पाठ पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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