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________________ २५२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे उ० तिण्णिवाससहस्साणि देसू० । उज्जो० सादभंगो । सेसं कायजोगिभंगो।। ४६१. ओरालियमि० पंचणा०-णवदंसणा-मिच्छत्त०-सोलसक०-भय-दु०-देवगदि-चदुसरीर-समचदु०-वेउवि० अंगो०-पसत्थवण्ण०४-देवाणु-अगु०-उप०-णिमि०तित्थय०-पंचंत० उक्क० एग० । अणु० ज० अंतो०, उक्क० अंतो० । गवरि समचदु० अणु० ज० एग० । दोआयु० ओघं । सेसाणं उक्क० एग० । अणु० ज० एग०, उक्क० अंतो० । एवं वेउव्वियमि०-आहारमि० । ओघके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन हजार वर्ष है । उद्योत प्रकृतिका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। तथा शेष प्रकृतियों का भङ्ग काययोगी जीवों के समान है। विशेषार्थ-औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम घाईस हजार वर्ष है। इतने काल तक ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। तिर्यश्चगतित्रिकका निरन्तर बन्ध औदारिककाययोगके रहते हुए अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें ही सम्भव है। उसमें भी वायुकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति तीन हजार वर्षप्रमाण होती हैकिन्तु इसमें औदारिकमिश्रकाययोगका काल भी सम्मिलित है, इसलिए उसे अलग करने पर कुछ कम तीन हजार वर्ष होते हैं। अतः औदारिककाययोगमें तिर्यञ्चगतित्रिकके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन हजार वर्ष कहा है। शेष कथन सुगम है। ४६१. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, चार शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि समचतुरस्त्रसंस्थानके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है। दो आयुओं का भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए । विशेषार्थ-औदारिकमिश्रकाययोगमें उत्कृष्ट अनुभागके बन्धयोग्य परिणाम एक समयके लिए ही होते हैं, इसलिए यहाँ पर सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। किन्तु उसमें भी पहले दण्डकमें जो ज्ञानावरणादि प्रकृतियाँ गिनाई हैं. उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध शरीर पर्याप्तिके ग्रहण करनेके एक समय पूर्व होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तं कहा है । मात्र समचतुरस्त्रसंस्थान इसका अपवाद है। इसका शरीर पर्याप्तिके ग्रहण करने में एक आदि समयका अन्तर देकर भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। समचतुरस्त्रसंस्थानके समान शेष प्रकृतियोंके विषयमें भी जानना चाहिए, इसलिए उन सबके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोग और श्राहारकमिश्रकाययोगमें इस दृष्टिसे कोई विशेषता नहीं है, इसलिए उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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