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________________ २५३ कालपरूवणा ४६२. वेउव्वियका० उज्जोवं ओघं । सेसाणं उक्क० ज० एग०, उक्क० बेसमः । अणु० ज० एग०, उ. अंतो० । एवं आहारका० ।। ४६३. कम्मइ० [ थावर ] संजुत्ताणं उक्क० एग० । अणु० ज० एग०, उ० तिण्णिसम० । एवं तससंजुत्ताणं । देवगदिपंचग० उक्क० एग० । अणु० ज० एग०, उक्क० बेसम० । ४६४. इत्थिवे. पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-अप्पसत्थव०४-उप०-पंचंत० उक्क० ओघं। अणु० ज० एग०, उक्क० कायहिदी०। सादा-आहारदुग-थिर-सुभ--जसगि० उक्क० अणु० ओघ । असादा०--छण्णोक०--चदुआयु०-णिरयगदि०-तिरिक्ख०-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ०-दोआणु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थवि०कथनको औदारिकमिश्रकाययोगीके समान कहा है। मात्र इनमें अपनी अपनी प्रकृतियाँ जानकर यह काल घटित करना चाहिए। ४६२. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें उद्योतका भङ्ग श्रोधके समान है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार आहारककाययोगी जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-ओघसे उद्योत प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सातवीं पृथिवीमें सम्यक्त्व ग्रहण करनेके एक समय पूर्व होता है। यतः इस अवस्थामें वैक्रियिककाययोग सम्भव है, अतः वैक्रियिक काययोगमें उद्योत प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओषके समान घटित हो जानेसे वह ओघके समान कहा है। तथा वैक्रियिक काययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है,इसलिए इसमें सब प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूते कहा है। शेष कथन सुगम है। ४६३. कार्मणकाययोगी जीवोंमें स्थावर संयुक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। इसी प्रकार त्रससंयुक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल जानना चाहिए। देवगतिपञ्चकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। विशेषार्थ-कार्मणकाययोगके तीन समय एकेन्द्रियों में ही सम्भव हैं और उनके देवगतिचतुष्क तथा तीर्थकर प्रकृति इन पाँचका बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। इनके सिवा कार्मणकाययोगमें अन्य जितनी प्रकृतियाँ बँधती हैं,वे स्थावरसंयुक्त या त्रससंयुक्त जो भी प्रकृतियाँ हों, उन सबका बन्ध एकेन्द्रियके सम्भव होनेसे उनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है। शेष कथन सुगम है। ४६४. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कवाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओषके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कायस्थितिप्रमाण है । सातावेदनीय, आहारकद्विक, स्थिर, शुभ और यशःकीर्तिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है । असातावेदनीय, छह नोकषाय, चार आयु, नरकगति, तिर्यञ्चगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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