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________________ कालपरूषणा २५१ ४८६. कायजोगी० पंचणा०--णवदंसणाo-मिच्छत्त०--सोलसक०--भय--दु०ओरालि०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० उक्क० अणु० ओघं । तिरिक्खगदितिगं च ओघं । सादा०-देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-आहार०-समचदु०-दोअंगो०-देवाणु०-पर०-उस्सा०उज्जो०-पसत्थवि०-तस०४-थिरादिछ०-तित्थय०-उच्चा० उ० ए० । अणु० ज० एग०, उक्क० अंतो० । सेसाणं उ० ज० ए०, उ० बेस० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । तेजा०-क०-पसत्थवण्ण०४-अगु०-णिमि० उ० एग० । अणु० गाणावरणभंगो । ४६०. ओरालियका. पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दु०ओरालि०-अप्पसत्थवण्ण०४-उप०-पंचंत. उक्क० ओघं। अणु० ज० ए०, उ० वावीसं वाससहस्साणि देसू० । तिरिक्खगदितिगस्स च उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, इन योगोंमें भी बन जाती है, अतः यहाँ इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। शेष कथन सुगम है। ४८६. काययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। तिर्यञ्चगतित्रिक उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। सातावेदनीय, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिक शरीर, आहारकशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, देवानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तैजस शरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्ण चार, अगुरुलघु और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। विशेषार्थ-यहाँ प्रथम दण्ड कमें कही गई ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल ओघमें एकेन्द्रियोंकी मुख्यतासे कहा है और एकेन्द्रियोंके एकमात्र काययोग ही होता है, अतः काययोगमें इन प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान बन जानेसे वह ओघके समान कही है। तिर्यञ्चगतित्रिककी प्ररूपणाका भी यही कारण है, इसलिए यहाँ वह भी अोधके समान कही है। एक तो सातावेदनीय आदि अधिकतर प्रकृतियाँ परिवर्तमान हैं, दूसरे संज्ञी पञ्चन्द्रियके काययोगका काल अन्तमुहूर्त है, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। तैजसशरीर आदि आठ प्रकृतियोंका एकेन्द्रियके भी निरन्तर बन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल ज्ञानावरणके समान कहा है । शेष कथन सुगम है। ४६०. औदारिककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । तिर्यञ्चगतित्रि कके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल १. ता० प्रतौ उ० [जह ] ए० इति पाठः। २. ता. प्रतौ पंचंत० श्रोधं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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