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________________ कालपरूवणा २४६ ४८५. पुढवि०-आउ० धुवियाणं उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० असंखेंज्जा लोगा। बादरे कम्महिदी। बादरपज्जत्ते संखेंजाणि बाससहस्साणि । सुहुमाणं असंखेंज्जा लोगा । सेसाणं अपज्जत्तभंगो। ४८६. तेउ०-वाउ० धुविगाणं तिरिक्खगदितिगस्स च उ० ज० ए०, उ. कोई विशेषता न होनेसे वह अोषके समान कहा है। असातावेदनीय आदि तीसरे दण्डकमें जो प्रकृतियाँ गिनाई हैं, उनका काल भी यहाँ ओघके समान घटित हो जानेसे वह अोधके समान कहा है। मात्र पुरुषवेदको ओघप्ररूपणामें अलगसे बतलाया है और यहाँ उसे सम्मिलित कर लिया है। इसलिए इसका ओघमें जिस प्रकार काल कहा है, उसी प्रकार यहाँ उसका अलगसे काल कहना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। तिर्यश्चगति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल तो ओघके ही समान है। मात्र अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके उत्कृष्ट कालमें विशेषता है। बात यह है कि इन प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध सातवीं पृथिवीमें सम्भव है और ऐसा जीव संक्लेश परिणामवश नरकमें जानेके पहले व बादमें अन्तमुहर्त काल तक इनका बन्ध करता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। मनुष्यगति, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल जैसा ओघमें बतलाया है, वह यहाँ अविकल घटित हो जाता है, इसलिए यह प्ररूपणा ओघके समान की है। इसी प्रकार देवगतिचतुष्क, पञ्चन्द्रिय जाति, परघात, उच्छवास और सचतुष्क तथा समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अपेक्षा काल ओघके समान यहाँ घटित कर लेना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। बात यह है कि इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल इन्हीं मार्गणाओंमें सम्भव है, इसलिए इन मार्गणाओंमें इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल ओघके समान रहा तजसशरार, कामेणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निमोण सो इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके उत्कृष्ट कालमें ओघसे कुछ विशेषता है। बात यह है कि ओघ प्ररूपणामें अमुक मार्गणाका कोई बन्धन न होनेसे वहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जो काल बतलाया है वह यहाँ सम्भव नहीं है । इन प्रकृतियोंके ध्रवबन्धिनी होनेसे यहाँ यह इन मार्गणाओं की कायस्थिति प्रमाण ही बनता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ४५. प्रथिवीकायिक और जलकायिक जीवों में प्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है। इनके बादर जीवोंमें कर्मस्थितिप्रमाण है। बादर पर्याप्त जीवोंमें संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है। सूक्ष्म जीवोंमें असंख्यात लोक प्रमाण है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंकी कायस्थिति असंख्यात लोक प्रमाण है। इनके बादरोंकी कायस्थिति कर्मस्थितिप्रमाण है। बादर पर्याप्तकोंकी कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है और सूक्ष्मोंकी कायस्थिति असंख्यात लोक प्रमाण है। इसलिए इनमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी कायस्थिति प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ४८६. अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और तिर्यञ्चगतित्रिकके उत्कृष्ट ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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