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________________ २४८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे सादा०-आहारदुग-उज्जो०-थिर-सुभ-जस० उक्क० अणुक्क० ओघ । असाद०-सत्तणोक०आयु०४-णिरय०-चदुजादि-पंचसंठा--पंचसंघ०--णिरयाणु०- आदाव-अप्पसत्य०. थावरादि०४-अथिरादिछ० उक० अणु० ओघं । तिरिक्व०-ओरालि-ओरालि०अंगो०-तिरिक्वाणु०-णीचा० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि । मणुस०-वज्जरि०--मणुसाणु० उक्क० अणु० ओघं । देवगदि०४ उक्क० अणु० ओघं । पंचिंदि०-पर०-उस्सा०-तस०४ उक्क० अणु० ओघं । समचदु०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सरआदें-उच्चा० उक्क० अणु० ओघं । तेजा०-क०-पसत्थवण्ण०४-अगु०-णिमि० उक्क० एग० । अणु० ज० अंतो०, उ० कायहिदी० । तित्थय० उक्क० अणु० ओघं । बन्धका काल ओवके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय हे और उत्कृष्ट काल कायस्थिति प्रमाण है। सातावेदनीय, आहारकद्विक, उद्योत, स्थिर, शुभ और यशः कीर्तिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल अोधके समान है। असातावेदनीय, सात नोकषाय, चार आयु, नरकगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार और अस्थिर आदि छहके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओवके समान है। तिर्यश्चगति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृ अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। मनुष्यगति, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल श्रोघके समान है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। पञ्चन्द्रियजाति, परवात, उच्छ्वास और त्रसचतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कायस्थिति प्रमाण है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओधके समान है। विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध ओघसे संज्ञी पञ्चन्द्रिय पर्याप्त करता है, इसलिए यहाँ इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान बन जाता है अतः वह ओघके समान कहा है। तथा ये ध्रवबन्धिनी प्रक्रतियाँ होनेसे पञ्चन्द्रियद्विक और त्रसद्विकमें अपनी-अपनी कायस्थिति प्रमाण काल तक इनका निरन्तर बन्ध सम्भव है.इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कायस्थिति प्रमाण कहा है। पञ्चन्द्रियद्विककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि प्रथक्त्व अधिक एक हजार सागर और सौ सागरपृथक्त्व प्रमाण है और त्रसद्रिककी उत्कर कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागर प्रमाण कही गई है। सातादण्डकके कालका खुलासा ओघ प्ररूपणाके समय कर आये हैं। उससे यहाँ कोई विशेषता नहीं है, इसलिए इस दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके कालमें अन्य १. ता० श्रा० प्रत्योः छण्णोक० इति पाठः। २. ता० प्रती उक्क० [ज०ए० इति पाठः । ३. ता. श्रा० प्रत्योः अणु० ज० ज० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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