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________________ कालपरूवणा ২৪৪ ४८१. मणुसेसु [३] खविगाणं उ० एग०। अणु० [पंचिंदिय-] तिरिक्खभंगो०। पुरिस० उ० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० तिण्णिपलिदो० सादि० । मणुसिणीए देसू० । देवगदि०४-समचदु०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदे-उच्चा० उ० ए०। अणु० ज० ए०, उक्क० तिण्णिपलि. सादि० । मणुसिणीसु. देस० । पंचिं०-पर०-उस्सा०तस०४ उ० एग० । अणु० ज० एग०, उ० तिणिपलिदो० सादि० । तित्थ० उ० एग० । अणु० ज० ए०, उ० पुवकोडी देमू। सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो।। औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय । शेष कथन सुगम है। ४८१. मनुष्यत्रिकमें क्षपक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। पुरुषवेदके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। किन्तु मनुष्यनियों में यह काल कुछ कम तीन पल्य है। देवगति चतुष्क,समचतुरस्रसंस्थान,प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य व उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। किन्तु मनुष्यनियोंमें कुछ कम तीन पल्य है। पञ्चन्द्रिय जाति, परघात, उच्छवास और त्रसचतुष्कके. उत्कृष्ट अनुभागवन्धक जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। विशेवार्थ-मनुष्योंमें जो क्षपक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है, वे ये हैं-सातावेदनीय, देवगति, पञ्चन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तेजसशरीर, कामणशरीर. समचतुरस्त्रसंस्थान, वक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, आहारक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्ण वतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु. प्रशस्त विहायोगति, स्थिरादि पाँच और निर्माण। इन क्षपक प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल जिस प्रकार तिर्यञ्चों में घटित करके बतलाया है,उस प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए । पुरुषवेदके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल तो ओघमें ही घटित करके बतला आये हैं। उससे यहाँ कोई विशेषता न होनेसे वह ओघके समान कहा है। मात्र यहाँ इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके उत्कृष्ट काल में विशेषता है जो इस प्रकार है-जिस मनुष्यने पूर्व कोटि कालके त्रिभागमें मनुष्यायुका बन्ध कर क्रमसे क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त किया, वह मरकर तीन पल्यकी आयु लेकर उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होता है। यतः सम्यग्दृष्टि के एक मात्र पुरुषवेदका ही बन्ध होता है अतः मनुष्योंमें पुरुष वेदके अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य प्राप्त होनेसे यहाँ वह उक्त प्रमाण कहा है । मात्र ऐसा जीव मरकर मनुष्यनियोंमें नहीं उत्पन्न होता, अतः इनमें वह कुछ कम तीन पल्य कहा है । यह भी, जो मनुष्यनी तीन पल्यकी आयु लेकर उत्पन्न हुई और सम्यक्त्वके योग्य कालके प्राप्त होने पर सम्यक्त्व ग्रहण कर जीवन भर उसके साथ रही. उसके कहना चाहिए। पञ्चन्टियजाति परघात, उच्छ्वास और त्रसचतुष्क ये भी क्षपक प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल तो एक ही समय होगा, पर इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धके उत्कृष्ट कालमें तिर्यञ्चोंसे विशेषता होनेके कारण यहाँ इनका काल अलगसे कहा है। बात यह है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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