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________________ २४४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ४८०. पंचिंतिरिक्व०अपज्ज. सव्वपगदीणं उ० ज० एग०, उ. बेसमः । अणु० ज० ए०, उ० अंतो०। एवं सव्वअपज्जत्त-सव्वविगलिंदिय-सव्वसुहमपज्ज०अपज्ज. सव्ववादरअपज्जत्तगा त्ति । णवरि विगलिंदियपज्जत्तगाणं धुवपगदीणं अणु० ज० एग०, उ० संखेंजाणि वाससह । है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अनन्त काल कहा है। दूसरे दण्डकमें कही गई सातावेदनीय आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। भोगभूमिके तिर्यश्चके निरन्तर पुरुषवेद आदि तीसरे दण्डकमें कही गई प्रशस्त प्रकृतियोंका बन्ध होता है और ऐसा जीव पूर्व पयोयमें तियश्च होकर भी प्रशस्त परिणामोंसे, मुहूर्तकालतक अन्तमें इनका बन्ध करता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा है । तिर्यञ्चगतित्रिकके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल ओघमें तिर्यञ्चगतिकी अपेक्षासे ही घटित करके बतलाया है, अतः यह प्ररूपणा अोधके समान कही है। पंचेन्द्रियजाति. परघात, उच्छवास और त्रसचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल तिर्यञ्चोंमें भोगभूमिकी प्रधानतासे प्राप्त होता है, क्योंकि जो तियश्च मर कर भोगभूमिमें उत्पन्न होता है उसके मरणके समय अन्तमुहूर्तकालसे लेकर भोगभूमिकी कुल पर्याय भर निरन्तर इनका बन्ध होता रहता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा है। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कहा है। किन्तु इस व्यवस्थाके कुछ अपवाद हैं। बात यह है कि पश्चन्द्रियतियञ्चत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है, अतः इनमें औदारिक शरीरको छोड़कर प्रथम दण्डकमें कही गई ज्ञानावरणादि शेष सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहा है, क्योंकि ध्रुवबन्धिनी होनेसे इनका इतने कालतक निरन्तर बन्ध होता है। तिर्यश्चत्रिकके भोगभूमिमें पुरुषवेद आदिका निरन्तर बन्ध सम्भव है, क्योंकि जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होता है उस ता है. उसके भोगभूमिमें निरन्तर पुरुषवेद आदिका ही बन्ध होता है। अतः यहाँ इनके अनुकृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल तीन पल्य कहा है। पर ऐसा जीव तिर्यश्च योनिनियोंमें नहीं उत्पन्न होता और वहाँ अपर्याप्त अवस्थामें इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका भी बन्ध होता है, अतः इनमें यह काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ४८०. पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, सब सूक्ष्म पर्याप्त, सब सूक्ष्म अपर्याप्त और सब बादर अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि विकलेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें ध्रुव प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार विशेषार्थ-यहाँ जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं,उन सबमें एक जीवकी कायस्थिति अन्तमुहूर्त से अधिक नहीं है। यही कारण है कि इनमें सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है । मात्र विकलत्रयोंमें इनके पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है,इसलिए इनमें ध्रुवबन्धबाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वषे प्रमाण कहा है। इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ ये हैं-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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