SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ४८२. देवेसु पंचणा-छदसणा-बारसक०-पुरिस०-भय-दु०-मणुस०पंचिंदि०ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वजरि-पसत्थापसत्थ०४-मणुसाणु०अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थ०-उच्चा०-पंचंत० उ० ज० एग०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० तेतीसं० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०अणंताणुबं०४ उ० ज० एग०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० ऍकत्तीसं सा० । सेसाणं उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो कालो णादव्यो । कि जो मनुष्य भोगभूमिमें उत्पन्न होता है,वह विशुद्ध परिणामोंसे मरनेके पूर्व अन्तमुहूर्त कालसे इन प्रकृतियोंका बन्ध करने लगता है। इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धका उत्कृष्ट काल तीनों प्रकारके मनुष्योंमें साधिक तीन पल्य घटित होनेसे वह यहाँ उक्त प्रमाण कहा है। पर्याप्त मनुष्योंमें यहाँ अन्य विशेषता भी घटित कर लेनी चाहिए। तीर्थकर प्रकृति भी क्षपक प्रकृति है, इसलिए इसके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। किन्तु मनुष्य पर्यायमें इसका निरन्तर बन्ध कुछ कम एक पूर्वकोटिकाल तक ही सम्भव है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। ४८२. देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। स्त्यानगृद्वि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी पकार सब देवों के अपना-अपना काल जानना चाहिए। विशेषाथ-यहाँ देवों में प्रथम दण्ड कमें जो ज्ञानावरणादि प्रकृतियों कहीं हैं,वे ध्रुवबन्धिनी हैं। तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध यदि होता है तो वह भी ध्रुवबन्धिनी है। यही कारण है कि सामान्यसे देवोंमें इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल पूरा तेतीस सागर कहा है। मात्र स्त्यानगृद्धि प्रादिक जो आठ प्रकृतियाँ दूसरे दण्डकमें कही हैं, उनमें से मिथ्यात्व मिथ्याष्टिके और शेष सात मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दष्टिके ध्रुवबन्धिनी हैं, किन्तु अनुदिशादिकमें एक सम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है, अतः इन आठके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल पूरा इकतीस सागर कहा है। इनके सिवा शेष जितनी प्रकृतियाँ बचती हैं वे सब यहाँ पर परावर्तमान हैं। अतः उनके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। यह सामान्य देवोंमें कालकी प्ररूपणा है। विशेषरूपसे जिन देवोंकी जो उत्कृष्ट स्थिति हो उसे जानकर और अपनीअपनी बँधनेवाली प्रकृतियोंको जानकर कालकी प्ररूपणा करनी चाहिए। यद्यपि बारहवें कल्प सक तिर्यगति, तिर्यगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भी बन्ध होता है, इसलिए यहाँ तक मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy