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________________ महाणुभागबंधाहिया रे ४७०. पम्माए एवं चैव । णवरि पंचिं ० -ओरालिय० - तेजा ० क ०-३ ०-ओरालि०अंगो ० - पसत्थवण्ण ०४ - अगु०३ - तस ०४ - णिमि० ज० क० १ अण्ण० देव सहस्सार ० मिच्छा० सव्वसंकि० । तिरि०- मणुस ० - इस्संठा० - वस्संघ० - दोआणु ० दोविहा०-तिष्णियुग० - दोगोद० ज० क० ? अण्ण० देव सहस्सार० परि०मज्झिम० । इत्थि०णवुंस० ज० १ देव० तप्पा० सव्वविसु० । २३४ ४७१. सुकाए सादादिचदुयुगल० ज० १ तिगदि० परि०मज्झिम० । इत्थि० - वुंस० ज० ? देव० तप्पा० विसु० । पंचिंदि ०-ओरालि०-तेजा० ० क००-ओरालि० अंगो०पसत्थवण्ण०४ एवं [ जाव णिमिण त्ति ] णवगेवज्जभंगो । मणुसायु० ज० १ देव० मिच्छा० । देवायु० १ तिरि० मणुस० जह० पज्जै० णि० मज्झिम० । देवगदि०४ ज० १ तिरि० मणुस० मिच्छा० सव्वसंकि० । छस्संठा०- छस्संघ० दोविहा० - तिण्णियुग० - दोगोद० ज० ? देव० मिच्छा० परि०मज्झिम० । तित्थय ० ज ० १ देव० सव्वसंकि० । सेसं ओघं । ४७०. पद्मलेश्या में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्च ेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, गुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर सहस्रार कल्पका मिध्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, मध्यके सुभगादि तीन युगल और दो गोत्र के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला अन्यतर सहस्रार कल्पका देव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है । स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य सर्वविशुद्ध अन्यतर देव उक्त प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है । ४७१. शुक्ललेश्या में सातादि चार युगलों के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला अन्यतर तीन गतिका जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध देव उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है । पश्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वर्णचतुष्क से लेकर निर्माण तककी प्रकृतियों का भङ्ग नव ग्रैवेयकके समान है। मनुष्यायुके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिध्यादृष्टि देव मनुष्यायु के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है । देवायुके जघन्य अनुभागका स्वामी कौन है ? जघन्य पर्याप्त निवृत्तिसे निवृत्तमान और नियम से मध्यम परिणामवाला अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य देवायुके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है । देवगति चतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर मिध्यादृष्टि तिर्यञ्च और मनुष्य उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है । छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, मध्यके सुभगादि तीन युगल और दो गोत्र के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? परिवर्तमान मध्यम परिणामत्राला अन्यतर मिध्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य अनु २. ता० था० प्रत्योः जह० गो० १. ता० श्रप्रत्यो० : विसु० गावंस० पंचिंदि० इति पाठः । पज्ज० इति पाठ: ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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