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सव्ववि० । सुहुमसंप० अवगद ० भंगो ।
४६५. संजदासंजदे पंचणा ०--छदंसणा०-- अद्वकसा०-- पंचणोकसा०-अप्पसत्थवण्ण०४ - उप० - पंचंत० ज० क० ? अण्ण० मणुस ० सागा० सव्वविसु० संजमाभिमु० । सादादिचदुयुग० ज० ? परि० मज्झिम० । अरदि-सोग० ज० क० ? अण्ण० तप्पा०वि० | देवाउ० जहण० ? तिरिक्ख० मणुस० जहण्णियाए पज्जत्तगणिव्वत्तीए परि०मज्झिम० | देवग०-- पंचिदि० वेडव्वि० - तेजा ० क० समचदु० -- वेड व्वि ० अंगो०पसत्थवण्ण०४ - देवाणु० - अगु०३ - पसत्थवि० -तस०४ - सुभग- मुस्सर - आदें० - णिमि०उच्चा० ज० क० ? अण्ण० तिरिक्ख० मणुस ० सागा० सव्व० मिच्छत्ताभिमु० । तित्थ० ज० ? असंजमाभिमुह० ।
महाबंध अणुभागबंधाहियारे
४६६. असंजदे पंचणा०-- इदंसणा ०- बारसक०-- पंचणोक० अप्पसत्थवण्ण०४उप० - पंचंत० ज० क० ? अण्ण० असंज०सम्मादिडिस्स सागा० सव्ववि० संजमा - चाहिए। तथा जो क्षपक प्रकृतियाँ हैं, उनका जवन्य स्वामित्व सर्वविशुद्ध श्रप्रमत्तसंयत जीवके कहना चाहिए। सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवों में अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ - सामायिक और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें जिन ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका जघन्य स्वामित्व अनिवृत्तिकरण क्षपक जीवके प्राप्त होता है, वे ये हैं- पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय । तथा परिहारविशुद्धिसंयत जीवों में जिन क्षपक प्रकृतियोंका जघन्य स्वामी सर्वविशुद्ध अप्रमत्तसंयत जीवको बतलाया हैं, वे ये हैं- पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक को छोड़कर छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद- हास्य-रति-भय-जुगुप्सा ये पाँच नोकपाय, चार अप्रशस्त वर्ण और उपघात । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
४६५. संयतासंतत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, पाँच नोकषाय, प्रशस्तवर्ण चतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत, सर्वविशुद्ध और संयम के अभिमुख अन्यतर मनुष्य उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है । सातादि चार युगलों के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। रति और शोकके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है । देवायुके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? जघन्य पर्याप्त निवृत्तिसे निवृत्तमान और मध्यम परिणामवाला अन्यतर मनुष्य या तिर्यञ्च देवायुके जघन्य अनुभागबन्ध का स्वामी है । देवगति, पञ्चोद्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकआङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रदेय, निर्माण और उच्चगोत्र के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत, सर्वविशुद्ध और मिथ्यात्व के अभिमुख अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? असंयम अभिमुख अन्यतर जीव तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है । ४६६. असंयत जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पाँच नोकपाय, अप्रशस्तवर्ण चतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ?
१. श्रा० प्रतौ मज्झिम• देहग० पंचिंदि० वेउब्वि० अरदि इति पाठः ।
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