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________________ सामित्तपरूवणा २२६ तस०४-मुभग-सुस्सर-आदे०--णिमि०--उच्चा० ज० क० १ अण्ण. चदुगदि० सागा० णि० उ० संकि० मिच्छता० । आहारदु० [अप्पसत्थवण्ण४-उप०-] तित्थयरं च ओघं० । एवं ओधिदंस०-सम्मा० । ४६४. मणपज्ज. देवग०-पंचिदि०-वेउवि०- तेजा-क०-समचदु०-वेउव्वि०अंगो०--पसत्य०४-देवाणु०-अगु०३-पसत्थवि०--तस४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०उच्चा० ज० क. ? अण्ण० पमत्तसंज० सव्वसंकि० असंजमाभिमु० । तित्थय० ज० ? पमत्तसंज० असंजमाभि० । सेसं ओघं । एवं संजदा० । णवरि पढमदंडओ मिच्छत्ताभिमु० । एवं सामाइय-च्छेदो० । णवरि पंचणाणावरणादि० ज० क० ? अण्ण० खवग० अणियहि ।परिहारे मणमजव०भंगो।णवरि देवगदिआदीओअसंजमाभिमुहाणं ताओ सामाइ०-छेदोव०णाभिमुह० कादव्वं । याओ खवगपगदीओ ताओ अप्पमत्तस्स संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त और मिथ्यात्वके अभिमुख अन्यतर चार गतिका जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है । आहारकद्विक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँक्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान कहा है। उनमें से क्षपक प्रायोग्य प्रकृतियाँ ये हैं--पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगद्धित्रिकको छोड़कर छह दर्शनावरण, चार संज्वलन और पुरुषवेद-हास्य रति-भय और जुगुप्सा ये पाँच नोकषाय । संयमप्रायोग्य प्रकृतियाँ ये हैंमध्यकी आठ कषाय, अरति और शोक । ४६४. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्व संक्लेशयुक्त और असंयमके अभिमुख अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? असंयमके अभिमुख अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोधके समान है। इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें प्रथम दण्डकमें जो देवगति, आदि २५ प्रकृतियाँ कहीं हैं, उनके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी मिथ्यात्वके अभिमुख संयत जीव है। इसी प्रकार सामायिकसंयत और छेदोपथापनासंयत जीवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके पाँच ज्ञानावरणदिकके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर क्षपक अनिवृत्तिकरण जीव इनके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें जिन देवगति आदि प्रकृतियोंका असंयमके अभिमुख होनेपर जघन्य स्वामित्व कहा है, उनका परिहार विशुद्धिसंयत जीवोंमें सामायिक और छेदोपस्थापनासंयमके अभिमुख होनेपर जघन्य स्वामित्व कहना १. ता० प्रतौ संकि० । मिच्छा० । प्रा० प्रती संकि० मिच्छा इति पाठः । २. ता० प्रती असंजमाभिमु.तित्थय जपमत्तसंज. असंजमाभि० [एतच्चिद्वान्तर्गतः पाठः पुनरुक्तः प्रतीयते। सेसं प्रोघं इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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