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________________ सामित्तारूवणा २१७ अण्ण. संजदासंजदे० तप्पा०विसु० । सादासादा०-थिरादितिण्णियुग०-आउ०४ ओघं । तिण्णिगदि-चदुजादि-छस्संठा०--छस्संघ०--तिण्णिआणुपु०-दोविहा०---थावरादि०४[मज्झिल्ल-] तिण्णियुग०-उच्चा० जह० कस्स. ? अण्ण० मिच्छा० परिय०मज्झिम० । तिरिक्ख०-तिरिक्रवाणु०-णीचा. जह० कस्स० १ अण्ण० बादरतेउ०-वाउ० सव्वाहि० सागा० सव्वविसु०। पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा-क० वेउव्वि०अंगो०-पसत्थवण्ण०४अगु०३-तस४-णिमि० जह० कस्स० १ अण्ण० पंचिंदि० सण्णि० मिच्छाइहि सागार० णि० उक्क० संकि० । ओरालि०२-आदाउज्जो० जह० कस्स० १ अण्ण० मिच्छादि० तप्पा०संकि० ज० अणु० वट्ट० । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३। णवरि तिरिक्ख०तिरिक्वाणु०-णीचा. मणुसगदिभंगो। ४४७. पंचिंदियतिरिक्खअप० पंचणा०-णवदंसणा०--मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-अप्पसत्थवण्ण०४-उप०-पंचंत. जह० कस्स ०१ अण्ण० सण्णि० सागा० सव्वअन्यतर मिथ्यादृष्टि तियश्च उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। अरति और शोकके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है? तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर संयतासंयत तिर्यश्च उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्थिर, अस्थिर, शुभ,अशुभ, यश कीर्ति और अयशःकीर्ति ये तीन युगल तथा चार अायु इनका भङ्ग ओघके समान है। तीन गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार, सुभगादि मध्यके तीन युगल और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागवन्धका स्वामी कौन है ? परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि तिर्यञ्च उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कोन है? सब पयाप्तियोंसे पयाप्त और सर्वविशुद्ध अन्यतर बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बस चतुष्क और निर्माणके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त अन्यतर पश्चन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि तिर्यञ्च उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। औदारिकशरीर, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, आतप और उद्योतके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त और जघन्य अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि तिर्यश्च उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागवन्धका स्वामी है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग मनुष्यगति प्रकृतिके जघन्य स्वामित्वके समान है। ४४७. पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकपाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और सर्वविशुद्ध अन्यतर संज्ञी अपर्याप्त तिर्यश्च १. ता. प्रतौ मिच्छा"ण. संजदासंजद, श्रा० प्रतौ मिच्छा० तप्पा० विसु. अण्ण. संजदासंजद० इति पाठः। २. ता० प्रतौ पंचिं.."संकि०, प्रा. प्रतौ पंचिंदि सएिण.""उक० संकि० इति पाठः। ३. ता० प्रतौ ज. वाउ० (वह) एवं, प्रा. प्रतौ ज० वा. उक्क एवं इति पाठः। ४. ता. प्रतौ पंचत० उ० (ज.) क०, प्रा० प्रती पंचतक. कस्स० इति पाठः। २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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