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________________ २१८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे विसु० । सादासादा०-दोगदि--पंचजादि-छस्संठा०-छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०-तसथावरादिदसयुग०-दोगोद० जह• कस्स० ? अण्ण० परियत्त०मज्झिम० । इत्थि.. णqस०-अरदि-सोग० जह० कस्स० १ अण्ण० सण्णि० सागा० तप्पा०विसु० । दोआउ० ओघं ! ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्थवण्ण०४-अगु०-णिमि० जह० कस्स० ? अण्ण. सण्णि. सागा. उक्क०संकि० । ओरालि०अंगो०-पर०-उस्सा०-आदाउज्जो० ज० कस्स० १ अण्ण० सण्णि० सागा० तप्पा०संकि० । एवं मणुसअपज्ज०-सव्वविगलिंदि०पंचिंदि०-तस०अपज्ज०-सव्वपुढवि०-आउ०-वणप्फदि-णियोद०-बादरपत्ते० । मणुसेसु ३ खविगाणं ओघं । सेसाणं पंचिंदि०तिरिक्खभंगो । ४४८. देवेसु पंचणा-छदंसणा०-बारसक०-पंचणोक०-अप्पसत्थवण्ण०४-उप०पंचंत० जह० कस्स० ? अण्ण० सम्मादि० सव्ववि०। थीणगिद्धि०३-मिच्छे०अणंताणुबं०४ जह० कस्स०? अण्ण० मिच्छा० सागा० सव्वविसु० सम्मत्ताभिमुह । सादादीणं चदुयुगलं ओघं । इत्थि०-णवंस. जह० कस्स० ? अण्ण० तप्पा विसु० । उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस-स्थावरादि दस युगल और दो गोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला अन्यतर अपर्याप्त तिर्यश्च उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोकके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है? साकार-जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर संज्ञी अपर्याप्त तिर्यश्च उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। दो आयुओंका भङ्ग अोधके समान है। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-गृत और उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त अन्यतर संज्ञी अपर्याप्त तिर्यञ्च उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास, आतप और उद्योतके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त अन्यतर संज्ञी अपर्याप्त तिर्यश्च उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागवन्धका स्वामी है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चन्द्रिय अपयाप्त, बस अपयोप्त, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब बनस्पतिका सब निगोद और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों के जानना चाहिए । . मनुष्यत्रिकमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। ४४८. देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्वविशुद्ध अन्यतर सम्यग्दृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागवन्धका स्वामी है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत, सर्वविशुद्ध और सम्यक्त्वके अभिमुख अन्यतर मिथ्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। साता-असाता, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यश कीर्ति-अयशःकीर्ति इन चार युगलोंका भङ्ग ओघके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर देव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी है। १. ता. प्रतौ थीणगिद्धि० ४ मिच्छ० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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